कविता

आंखें

क्या कहें इन आंखों की ख्वाहिश
ना जाने क्या ढूंढती रहती हैं
कभी यहां कभी वहां
बस बरबस देखती रहती हैं
सूनापन है शायद कुछ इनमें
जो बोल नहीं ये पाती हैं
कुछ व्यथा देख पछताती हैं
है फिक्र बहुत दर्शाती हैं
हूं कितनी मजबूर सोचती
ना मैं कुछ कर सकती
फटे कलेजा चाहे जिसका
बढकर आंसू ना पोंछ सकती
क्या क्या दृश्य न देखे मैंने
सुख दुख संताप हँसी ठिठोली
पर होती कितनी बडी बात ये
जो देख किसी का दुख हर लेतीं
पर ना है मेरे वश में ऐसा
ना ही कर्म कोई मेरा ऐसा
तुम रोना तो संग रो लूंगी
तुम हंसना तो मैं हँस लूंगी
हां, साथ निभाऊंगी हरदम मैं
जलती बुझती संग संग मैं
आइना हूं मैं देख लो मुझको
हूँ किताब सी पढ लो मुझको
देख रहे जो दुनिया मुझसे
मैं चाहूं बस अच्छा सीखो
बुरे कर्म से रीत निभाकर
कोई दर्द ना मुझको दो तुम।

वन्दना श्रीवास्तव

शिक्षिका व कवयित्री, जौनपुर-उत्तर प्रदेश M- 9161225525