कहानी

लक्ष्य

यों तो सुधीर जी अपने नाम के अनुरूप बहुत ही धैर्यवान थे, लेकिन धैर्य की भी एक सीमा होती है. वे न तो अपने को बहुत बड़ा लेखक थे और न ही विद्वान. बावजूद इसके वे जो कुछ भी लिखते थे, अक्सर सबको अच्छा लगता था और उनके एक पाठक निरंजन की पसंदगी का तो कहना ही क्या!
“सुधीर जी, आपके शब्द शास्त्र की ऊष्मा मैं भीतर तक महसूस कर रहा हूं. —–वाह ! क्या अद्भुत संगम है शब्दों के शक्ति संतुलन का.”
“सुधीर जी, आपका आलेख पढ़ना प्रारंभ किया तो पढ़ता ही चला गया. पढ़ते-पढ़ते आत्म विभोर की स्थिति में आ गया…….”
“सुधीर जी, एक चिकित्सीय विकार “ओडिपस काम्प्लेक्स” को शब्दों का आकार देकर एक मनोरंजक व प्रेरणास्पद लघुकथा के रूप में प्रदर्शित करना आपकी अपार बौद्धिक योग्यता और क्षमता को दर्शाता है……”
“सुधीर जी, मेरी नजर में आप एक दक्ष लेखक होने के साथ-साथ एक कुशल मनोवैज्ञानिक भी हैं. अगर प्रशंसा में इतना भी न लिखूं तो आप की साहित्यिक कृति से घोर अन्याय होगा.”
अपनी सशक्त लेखनी के अंजन से निरंजन न जाने कितनी ही ऐसी अनमोल उपाधियों से सुधीर जी को नवाज चुका था.
कहते हैं कि समय परिवर्तनशील है. अच्छा समय नहीं टिकता, तो बुरा समय भी निकल जाता है. स्थिति के लिए भी ऐसा ही कहा जा सकता है. सुधीर और निरंजन के बीच भी ऐसा ही कुछ हुआ था.
निरंजन को सुधीर जी के लेखन में न जाने कौन-सी त्रुटि नजर आई, कि उसका नजरिया ही बदल गया. लेखनी तो उसकी सशक्त थी ही, जितनी मुस्तैदी से उसने सुधीर जी का उत्साह बढ़ाया था, उतनी ही तेजी से वह सुधीर जी को निरुत्साहित करने में जुटा रहा.
श्रेष्ठ कलाकार हो या साहित्यकार, ऐसी बातों से तनिक निराश तो होता है पर वह इन सबकी परवाह नहीं करता.
हां, लगातार ही ऐसे हमले होते रहें और बात जब हद से गुजर जाती है, तो असर पड़ने अवश्य लगता है.
“निंदक नियरे राखिए—-” अन्य लोग समझाते, वह भी खुद को समझाता. पर दिल है कि मानता नहीं!
“जाने भी दे यार!” उसने गाना सुना, फिल्म भी देखी, पर दिल ने कब किसकी सुनी है!
‘कुछ तो कहेंगे लोग, सबसे बड़ा रोग!’ पर उसने एक उच्चकोटि के साहित्यकार का अनूठा अंदाज देखा!
“किसी समय मैं अपने मत को लेकर बड़ी बहसबाजी किया करता था लेकिन अब मैं खुद से असहमत लोगों को नजर अंदाज करके अपने काम पर ध्यान देने की कोशिश करता हूं.” पर बात बनती नहीं दिखी!
तनाव को टिकने के लिए स्थान उपलब्ध होने लगा था.
तभी उसके समक्ष एक अद्भुत प्रसंग आ गया-
“अमेरिका के किसी सागर तट पर एक महिला प्रतिदिन डॉल्फिन का कौतुक देखा करती थी. डॉल्फिन एक विनोदी स्वभाव की मछली है. इसका स्वभाव मनुष्य के साथ मैत्रीपूर्ण है. धीरे-धीरे डॉल्फिन और महिला के संबंध प्रगाढ़ मैत्री में परिवर्तित हो गए. घंटों महिला और उसकी मछली मित्र खिलवाड़ करते रहते. एक दिन डॉल्फिन के तेवर अचानक आक्रामक हो गए, उसकी आक्रामकता इतनी ज्यादा बढ़ गई कि उसने महिला के कंधे पर एक के बाद एक अनेक आघात किये. महिला चोटिल होकर बदहवासी की हालत में वहां से घर चली गई. अपने फैमिली डॉक्टर की सलाह पर उसने कंधे की सोनोग्राफी करवाई. रिपोर्ट आने पर पता चला कि महिला को बोन कैंसर की प्रारंभिक अवस्था थी. सही समय इलाज मिलने पर महिला पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गई. यह था डॉल्फिन का अपनी महिला मित्र के लिए अद्भुत तथा मददगार संवाद!”
सुधीर जी को भी सही इलाज मिल गया था! निरंजन अब उसे आक्रामक डॉल्फिन की नाईं दिखाई दिया.
“मुझे भी इससे लाभ हो सकता है!” नजरिया बदलने से सुधीर जी मन को सुदृढ़ कर पाए.
कछुए की तरह अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट कर वे लेखन में संलग्न हो गए.
निरंजन के व्यर्थ प्रलाप को अपना संबल बनाकर सच्चे कर्मयोगी की तरह वे पूर्ण समर्पण से जुटे रहे.
उसी समर्पण का सुपरिणाम था- फिक्शन के लिए सुधीर जी का “उस वर्ष के प्रतिष्ठित बुकर अवॉर्ड” से सम्मानित होना.
उनकी नजर में निरंजन उनके लिए सबसे बड़ा प्रशंसक बन गया था.
निरंजन का लक्ष्य पूरा हो चुका था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244