कविता

जीवन जीने का सलीका

ये जीवन कैसी एक पहेली है?
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
हवा का रुख कब बदल जाए
नभ में घनघोर घटा कब छा जाए
आसमान में तारे कब छिप जाएं
शशि बादलों से कब घिर जाए
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
ये जीवन कैसी एक पहेली है?
धरा बोझ से कब चीख जाए
सागर में लहरें कब उठ आएं
पानी के सोते कब सूख जाएं
वसंत में पतझड़ कब आ जाए
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
ये जीवन कैसी एक पहेली है?
मिट्टी की गगरी कब टूट जाए
कली बिना खिले कब सूख जाए
पिंजरे से पंछी कब उड़ जाए
तन से प्राण कब छूट जाए
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
ये जीवन कैसी एक पहेली है?
ये मनुवा की समझ में ना आए
तभी तो द्वेष-मुक्त ना हो पाए
‘मेरा-तेरा’ सदा ही करता जाए
अनमोल जीवन व्यर्थ बीता जाए
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
ये जीवन कैसी एक पहेली है?
अंततः शरीर शिथिल हो जाए
माया के बंधन छूट ना पाएं
किएं कर्मों की याद जब आए
मांगने पर भी मौत पास ना आए
कोई ना जाने ये कैसी अटखेली है?
ये जीवन कैसी एक पहेली है?
जो जीवन-मर्म को समझ जाए
वो निर्विकार निष्काम बन जाए
हर एक-एक लम्हे को जीता जाए
जीवन को जश्न में बदलता जाए।
यारों, जीवन और कुछ नहीं
चार दिन की चांदनी और फ़िर अंधेरी रात।
अंधेरी रात आने से पहले
जीवन को हंसी-खुशी जी लें।
सदा खुशमिजाज रहें और
औरों को भी खुश और प्रसन्न रखें।
खुद मनभर के जिए और
औरों को भी जीवन दें।
यही है-जीवन का सफरनामा।
जीवन ना कोई अटखेली है और ना कोई पहेली।
बस,सिख लें जीवन जीने का सलीका।
— समीर उपाध्याय

समीर उपाध्याय

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