लघुकथा

बँटवारा

“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।” सुनील ने जब अपने बड़े भाई  विकास को फोन किया तो उसकी आंखें भर आयीं थी । चार पाँच साल से गाँव में रहकर वह अकेले ही मां की सेवा कर रहा था। भाभी और स्वयं उसकी पत्नी भी शहर में थीं कोई भी मां के पास गाँव में रहना ही नहीं चाहती थी परन्तु सुनील ने अपनी माँ को अकेले नहीं छोड़ा । खेती संभालना, हाट बाजार का काम देखना और रोज सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को सही करना,गन्दे कपड़े धोना आदि  सभी काम वह स्वयं ही करता था। इधर एक महीने से तो उसकी अम्मा पूरी तरह बिस्तर से लग गयीं थी। डाॅक्टर ने भी जवाब दे दिया था। उनकी अस्सी पच्चासी की उम्र भी हो रही थी।
    “अरे कुछ नहीं यार, तू तो बेकार ही परेशान हो जाता है । किसी और डाॅक्टर को भी दिखा दे , अम्मा बिल्कुल ठीक हो जायेंगी।” उधर से बड़े भाई का जवाब आया।
      जी भैया दिखा दिया है , पर डाॅक्टर ने जवाब दे दिया है। आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं। उनकी तबियत बहुत खराब है।
       दोनों बहनों में भी एक तो देखने पहुंच गई परन्तु दूसरी बहन भी नहीं आ सकी। दूसरे दिन सुबह जब सुनील मां को जगाने लगा तो उसके हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।
     उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी उसने अपनी बहन को आवाज दी वह भी हड़बड़ा कर उठ बैठी।
       “क्या हुआ ? ” कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो
वह भी सन्न रह गई। वह मां से लिपटकर रो पड़ी परन्तु मां का हाथ उसे चुप कराने के लिए नहीं उठा। वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।
    सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये दुख भी प्रकट किया। दोनों बहुओं और बड़े बेटे का ध्यान अम्मा के सन्दूक पर ही टिका हुआ था।
                  अन्तिम संस्कार के बाद रात में फिर दोनों भाई उनकी पत्नियां और बहनें इकट्ठा बैठे। सन्दूक लाया गया और सबके सामने उसे खोला गया।उसमें रखे पैसों और जेवरों की लिस्ट बनाई गई। फिर उन सबको सन्दूक में रखकर ताला लगा दिया गया और चाभी बड़ी बहन को थमा दिया गया। दोनों बहुओं ने अपने मोबाइल में उस लिस्ट की फोटो भी ली ताकि उस लिस्ट में कोई हेरफेर नहीं होने पाये। उन लोगों के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी। उनकी अम्मा को गये अभी एक दिन भी नहीं बीता था।
         दूसरे दिन दोपहर में तय हुआ की सुनार को बुलाकर जेवर तुलवा लिया जाये और उनको बराबर-बराबर दो हिस्सों में बांट दिया जाये। अब मां की सम्पत्ति में से बहनें भी खुले आम बेदखल कर दी गयीं यह भी नहीं कहा गया की लो आप दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो। अब उस घर के मालिक उस घर के लड़के थे।
  भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग  सुनेंगे वे क्या कहेंगे? एक बहन ने कुछ झिझकते हुए कहा।
 अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।
       बहुत बहस के बाद सुनार बुलाकर लाया गया। सुनार ने सभी चीजें तौलकर वजन बता दिया। अब वजन के हिसाब से सब चीजें तो बंट गयीं पर मां के हार को लेकर दोनों भाई में मतभेद खड़ा हो गया। दोनों ही उसे पूरा लेना चाहते थे। फिर बहस का विस्तार हुआ और अन्ततः तय हुआ की हार को दो टुकड़े कर दिया जाये। बहनों के दिल पर जैसे आरी चल रही थी। माँ का प्रिय हार काटने की बात उनको जरा सी भी अच्छी नहीं लग रही थी।
      भैया इसे ठीक से काटना कुछ भी कम ज्यादा नहीं होना चाहिए। बड़ी भाभी ने सुनार से बड़े ही अधिकार से कहा। यह वही महिला थी जिसने एक दिन भी मां की सेवा नहीं की थी और अब उनके जाने के बाद उनकी सम्पत्ति की मालकिन बन रही थी।
      यही अधिकार तब दिखाती जब अम्मा बीमार थीं तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।
   “रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा? छोटे भाई ने बहन को शान्त करते हुए  कहा।
  सुनार बहुत देर तक उस हार को देखता रहा। अन्ततः उसने उस हार के दो टुकड़े कर दिये। जाने क्यों उसकी आँखों से दो बूंद आंसू लुढ़क गये।
  — डाॅ सरला सिंह  “स्निग्धा”

डॉ. सरला सिंह स्निग्धा

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