लेख

/ जाति मरेगी कैसे ? /

/ जाति मरेगी कैसे? /

दलित शब्द के अर्थ को लेकर एक लंबी चर्चा कई सालों से चल रही है। कुछ लोगों ने अस्पृश्य को ही दलित माना है तो और कुछ लोगों ने उपेक्षित सारी जनता को। हमें यहाँ दो दृष्टिकोण नज़र आते हैं। एक सीमित दृष्टिकोण है तो दूसरा व्यापक। दलित शब्द का अर्थ शब्द कोशों में विभिन्न अर्थों में दिया गया है। दलित शब्द को अगर सीमित परिधि में देखा जाय तो इस कोटि में आनेवाली जनता फिर से अलग ही दृष्टि से देखने की मानसिकता फैल जाएगी। कोई भी व्यक्ति अपनी यात्रा अकेला चला नहीं सकता। यह भी हम जानते हैं कि सामूहिकता ही बल है। भारत बहु संख्यक देश है। इसमें कई जाति – उपजातियाँ हैं। एक जाति व उपजाति दूसरी जाति व उपजाति के साथ ऊँच, नीच का व्यवहार करती है। लिंगगत भेद भावना हमारे समाज में एक विकृति है। इसमें पुरूष को स्त्री की तुलना में श्रेष्ठ दर्जा दी गई है। हमारे यहाँ कई पेशे के लोग हैं। एक पेशा दूसरे पेशे से नीच व श्रेष्ठ माना जाने लगा है। अल्प संख्यकों के साथ बहु संख्यकों का रौब हर जगह देखा जा रहा है, कुचला जा रहे हैं। विकलांगों की हालत सबसे भिन्न है। सबके साथ ये अपना जीवन चला नहीं सकते। हर जगह भीख माँगते कई लोग दिखाई देते हैं। हीन – दीन, उनकी दुःखित अवस्था कितनी दयनीय है। इनके पास न कोई आधार कार्ड है और न राशन कार्ड। घुमंतु जीवन इनका है। इसमें अनाथ हैं, मानसिक एवं शारीरिक विकलांग भी हैं। ट्रांस जेंडर की स्थिति इतनी खराब है कि इनको कोई भी काम न देता। मान – सम्मान इनका कहाँ पर है? भारत की इस विभिन्नता को समझे बिना दलित शब्द की परिभाषा देना कठिन है। महात्मा फुले, बाबा साहब का दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखकर दलित की परिभाषा देना पड़ेगा। समसमाज की स्थापना हमारा लक्ष्य है। दीन-दुःखित, उपेक्षित, असहाय लोगों के जीवन में अस्मिता दिलाने की दिशा में हमारा चिंतन होना बहुत जरूरी है। लेकिन अभी भी हमारा समाज़ जाति की उस विकृति को पार नहीं कर पा रहा है। जो भी बात इस समाज़ में स्थापित करना है तो जनता की समग्रता को दृष्टि में रखकर करना है। अगर बाबा साहब जाति की दायरे में खड़ा हुआ होता तो यह देश और एक टुकड़ा बना हुआ होगा। देश धर्म का हो या जाति का, वह कभी भी सुरक्षित नहीं हो सकता। इस बात के लिए हम बाबा साहब के प्रति बहुत बड़े ऋणी हैं कि उन्होंने इस देश को लौकिक तंत्र में बाँध दिया है। जिस दिन लौकिकता हमारे देश से हटा दी जाएगी, उसी दिन से लोक जीवन अस्त – व्यस्त होकर पतन की गति प्राप्त करेगी। मूढ़ता, अराजकता फैलेगी। जाति का विकार विष फूँकता रहेगा। जो भी बातें तय करें उसके पीछे व्यापक उद्देश्य होना आवश्यक है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति इसी उद्देश्य से हुई। बाबा साहब ने दलित की श्रेणी में उन सभी को ले आने का प्रयास किया है, जिनमें अस्पृश्य, स्त्री, विकलांग, किसान, उपेक्षित, शोषित, पीड़ित, दमित तथा अत्याचार का शिकार बना हुआ हर आदमी आएगा। उपेक्षितजनता का संविधान में आरक्षित प्रावधान से लेकर हर इंसान के हक की बात है। हाशिये की जनता एक छत्र छाया के नीचे आ जाएँगे तो अस्मिता की रौनक हर जगह फैलेगी। अस्सी से अधिक प्रतिशत जनता इस कोटि जनता हर काम में अपनी प्रतिभा दिखाएगी। उपेक्षित समाज आगे का दम लेगा, देश की उन्नति में सहभागिता लेगी। शासक बनेंगे, समसमाज की स्थापना ऐसे व्यापक विचार से, उसको साकार करने की दिशा में अपना हाथ जोड़ने से संभव है। लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। हर इंसान अपने को अपनी जाति के दायरे में देख रहा है और अलग मान रहा है। यह हरेक इंसान को सोचना है। बड़े – बड़े ओहदे पर बैठे महान लोग, पंडित भी जाति से ऊपर उठकर नहीं आ रहे हैं। अपने को जाति के साथ जोड़कर देख रहे हैं।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।