स्वास्थ्य

भीगे पैरों बैठकर करिए भोजन, रहेंगे स्वस्थ तन और मन

रक्त का पुनर्वितरण और शरीर कार्यिकी: एम.बी.बी.एस. के प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों को शरीर कार्यिकी (फिजियोलॉजी) विषय के तहत रक्त का आवश्यकतानुसार पुनर्वितरण (Redistribution) पढ़ाते हैं, परन्तु संयोगवश सुस्वास्थ्य की दृष्टि से उसकी दैनन्दिन जीवन में व्यावहारिक उपयोगिता (प्रैक्टिकल आस्पेक्ट एण्ड यूटिलिटी) नहीं पढ़ाते हैं। यह भी पढ़ाते हैं कि मनुष्य शरीर में जो औसतन पांच लीटर रक्त है, उसका सामान्य परिस्थितियों और व्यायाम के समय विभिन्न अंगों को आवश्यकतानुसार आनुपातिक रूप से वितरण होता है, जो परिवर्तनशील रहता है। वास्तव में व्यायाम की अवधि में कार्डियोवास्कुलर सिस्टम रक्त को पुनर्वितरित इसलिए करता है ताकि व्यायाम में प्रयुक्त सभी मांसपेशियों को रक्त का अधिक प्रतिशत प्राप्त हो सकें और उनके लिए आवश्यक प्राणवायु तथा पौष्टिक तत्वों की आपूर्ति हो सकें। इस परिवर्तन के चलते पाचन तंत्र आदि अंगों को व्यायाम के समय रक्त का प्रतिशत रक्त प्राप्त होता है। रक्त का पुनर्वितरण न केवल व्यायाम के समय होता है, बल्कि भोजन, पाचन, सेक्स आदि विशेष स्थितियों में भी आवश्यकता के अनुसार रक्त का वितरण बदल जाता है। यह परिवर्तन थोड़ा नहीं होता है, बल्कि उल्लेखनीय होता है।

इस चित्र से यह सरलता से समझ में आ सकेगा कि व्यायाम और विराम के समय रक्त का वितरण कितना पृथक होता है शरीर कार्यिकी के अनुसार भोजन के समय रक्त का पुनर्वितरण क्यों होता है

रक्त का पुनर्वितरण और भोजन: जब हम भोजन करते हैं, तब पाचन संस्थान को अधिक ऊर्जा और प्राणवायु प्रदान करने हेतु रक्त का पुनर्वितरण होता है। उस स्थिति में चूंकि हमारा पाचन संस्थान तुलनात्मक रूप से अधिक सक्रियता से कार्य कर रहा होता है, जैसे लार का निर्माण, विभिन्न कार्यों (काटने, चीरने, चबाने आदि) के सम्पादन हेतु सोलह जोड़ी दांतों द्वारा अपना कार्य सम्पादित करना, जीभ द्वारा भोजन को लार से मिलाना, उसे लसलसा बनाना, दांतों द्वारा चूर्णिकृत भोजन को गले में ठेलना, निगलना, आमाशय आदि में पाचक रसों का निर्माण, उनका खाद्य पदार्थों के साथ मिश्रण, आमाशय में तीन तरह की मांशपेशियों का काम पर लगना, इसके अतिरिक्त पाचन क्रियाओं के तहत भोजन को आगे बढाने वाली आमाशायिक गति, आंतों की गति आदि, इसलिए वहां अधिक प्राणवायु, ऊर्जा और पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता होने से, उनकी आपूर्ति हेतु वहां रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है और उस अवधि में शरीर के दूसरे अंगों को तुलनात्मक रूप से कम रक्त मिलता है। इसीलिए जब मस्तिष्क आदि अंगों को आनुपातिक रूप से कम रक्त मिलता है तो भोजन के उपरान्त कुछ समय के लिए एक तरह की सुस्ती का अनुभव होता है। शरीर विश्राम चाहता है, वैज्ञानिकों ने इसे टायर्डनेस कहा है। शरीर भी सुस्ती के माध्यम से स्पष्ट संकेत करता है कि अभी मुझे कोई दूसरा काम नहीं करना है, कृपया मुझे पड़े रहने दो। इसी को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेद में भोजन के उपरान्त दस पन्द्रह मिनट वामकुक्षी विश्राम के निर्देश हैं।

भारतीय शास्त्रों में भोजन: वैसे तो भारतीय वांग्मय (आयुर्वेद, मनुस्मृति, पुराण, उपनिषद, श्रीमद्भागवतगीता, महाभारत, श्रीरामचरितमानस, जैन ग्रंथों, योग शास्त्र आदि) में आहार विषयक अनेक विज्ञानसिद्ध निर्देश हैं, परन्तु प्रसंगवश आहार-विषयक केवल रक्त के पुनर्वितरण से सम्बद्ध निर्देशों का ही उल्लेख किया जा रहा है :-
• सुखासन में बैठकर भोजन करें।
• हाथ, पैर धोकर भोजन करें।
• भोजन करते समय पैर गीले रखें।
• प्रसन्न मन से, भोजन की प्रशंसा करते हुए भोजन करें।
• बिना बोले (मौन), बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये।
• भोजन के तुरन्त उपरान्त व्यायाम, स्नान, सम्भोग और पुनर्भोजन न करें।

निर्देशों का वैज्ञानिक पक्ष: उक्त निर्देशों से स्पष्ट होता है कि हमारे ऋषि-मुनि न केवल रक्त के पुनर्वितरण की बात को अच्छीतरह से जानते थे, बल्कि वे यह भी जानते थे कि शरीर में तापमान का नियंत्रण कैसे होता है। इसलिए आचार्यों ने व्यावहारिक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए श्लोकों के माध्यम से स्पष्ट निर्देशों की रचना की थी। सामान्यत: भारतीय (जापानी और चीनी भी) सुखासन (क्रास लेग्ड) में बैठ कर भोजन करते हैं, न केवल भोजन बल्कि अन्य क्रियाओं (पूजा-पाठ, जप-तप, चिन्तन, मनन आदि) के लिए भी सुखासन, पद्मासन अथवा वज्रासन को अपनाया जाता है। योगशास्त्र और शरीर शास्त्र के अनुसार भी सुखासन यथानाम, तथागुण वाली स्थिति है, और ऐसा अधिकांश व्यक्तियों का व्यक्तिगत अनुभव भी है कि सुखासन में शरीर अन्य स्थितियों, जैसे खड़े-खड़े, अथवा वज्रासन अथवा कुर्सी पर बैठने) की अपेक्षा अधिक सुख और कम्फर्ट का अनुभव करता है। भोजन करते समय भी निश्चित रूप से खड़े रहने की अपेक्षा सुखासन में बैठना आरामदायक होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार बैठकर भोजन करने के कई लाभ होते हैं।

सुखासन की विशेषताएं: सुखासन मन को शांत करने में सहायक होता है और रीढ़ के निचले हिस्सों पर दबाव डालता है, जिससे शरीर को अधिक विश्राम मिलता है, और श्वास धीमी हो जाती है, मांसपेशियां तनावमुक्त हो जाती हैं और रक्तचाप भी कम हो जाता है। आयुर्वेद के दृष्टिकोण से, ये स्थितियां भोजन के यथोचित पाचन हेतु सकारात्मक होती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार पाचन तंत्र को सर्वाधिक नियंत्रित करने वाली प्रमुख नर्व “वेगस”, बैठकर भोजन करते समय बेहतर तरीके से मस्तिष्क को सन्देश भेजती है और इन सन्देशों के चलते सुपाचन के साथ-साथ वजन घटाना भी सम्भव होता है। पेट में पाचन संबंधी रस उचित मात्रा में स्रावित होते हैं, जो पाचन क्रिया के लिए श्रेयस्कर होते हैं। इस स्थिति में पाचन संस्थान को तुलनात्मक रूप से अधिक रक्त के संचार का भी लाभ होता है। भोजन के कौरों को उठाने और मुंह में रखने के लिए बार-बार आगे-पीछे (झुकने-सीधे) होने की गति भी पाचन के लिए सकारात्मक सिद्ध होती है। उदर की मांसपेशियों में भोजन की अवधि में निरन्तर खिंचाव (स्ट्रेचिंग) और शिथिलता पाचन क्रिया में सहायक होने के अतिरिक्त शरीर को अधिक लचीला और स्वस्थ बनाने में सहायक होती हैं।

अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में सुखासन: भारत की रिसर्च के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक, केरल के अमृता विश्व विद्यापीठं के तहत कार्यरत आयुर्वेद स्कूल में सम्पन्न अनुसंधानों से आयुर्वेद वर्णित भोजन के निर्देशों को वैज्ञानिक आधार मिला है। सुखासन में बैठकर भोजन करते हैं तो पैरों के लिए आवश्यक रक्त के संचार हेतु अधिक ऊर्जा का व्यय नहीं होता है साथ ही पाचन संस्थान को आवश्यक रक्त पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है। यदि खड़े-खड़े भोजन किया जाता है तो खड़े रहने के लिए उत्तरदायी पैरों की मांसपेशियों के साथ-साथ हाथों की मांसपेशियों को (कौर तोड़ेंगे तो प्लेट पर इक्वल एण्ड अपोजिट फोर्स लगाने के लिए) भी काम पर लगना पड़ेगा। उन्हें भी अधिक रक्त की आवश्यकता पड़ेगी। और यदि कुर्सी पर पैर लटका कर भोजन करते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण के चलते और पैरों की मांसपेशियों की निष्क्रियता के कारण रक्त को गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ह्रदय तक संचारित करने में अधिक ऊर्जा का व्यय करना पड़ता है अथवा “पुलिंग ऑफ ब्लड” पैरों के निचले हिस्से में हो जाता है, जो रक्त के पुनर्वितरण की व्यवस्था के लिए नकारात्मक सिद्ध होता है। Science behind sitting on floor in India and Indian subcontinent. भोजन के उपरान्त व्यायाम, सम्भोग, स्नान और फिर से भोजन करने का अर्थ है, रक्त के वितरण के मार्ग को बीच में ही बदलना, अर्थात् अनावश्यक समझौता।

भोजन और पाचन क्रिया: खाद्य पदार्थ सबसे पहले आमाशय में रुकता है, फिर वहां उसका चुर्णन और मिश्रण होता है और फिर अत्यन्त ही छोटे-छोटे अंशों में आमाशय से छोटी आंत में जाकर धीरे-धीर पाचन क्रियाओं से गुजरते हुए बड़ी आंत में जाता है। इसी धीमी गति के कारण आमाशय से छोटी आंत में भोजन पहुंचने में डेढ़ से दो घंटे लग जाते हैं। यदि खड़े-खड़े भोजन करते हैं तो आमाशय की स्थिति हॉरिजॉन्टल होने की बजाय तनिक वर्टीकल-सी हो जाती है और भोजन अपेक्षाकृत अधिक गति से छोटी आंत में जाने लगता है, (और आमाशय और छोटी आंत के मध्य के वाल्व, पाइलोरिक स्फिन्क्टर, पर आमाशायिक भोजन पदार्थों का निरन्तर अधिक दबाव पड़ता है), जो कि पाचन क्रिया की दृष्टि से उचित नहीं है। इसलिए भोजन के विधिवत पाचन की दृष्टि से भी भोजन भूमि पर आसन बिछा कर किया जाना विज्ञानसम्मत है। यह बात भी है कि खड़े होकर भोजन करते हैं तो भोजनक्रिया अधिकतम 10-15 मिनट में सम्पन्न हो जाती है, जबकि बैठकर खाना खाते हैं तो कम से कम 20-30 मिनट लगते हैं, यह अवधि दांतों, लार, आमाशय आदि की व्यवस्थित क्रियाओं के लिए आवश्यक भी है। और यदि आयुर्वेद के मौन रहकर भोजन करने के नियम का उल्लंघन किया जाता है तो बातों के लिए मस्तिष्क को भी अधिक रक्त लगेगा, बोलने के लिए उत्तरदायी मांसपेशियों को भी अधिक रक्त की आवश्यकता होगी, इसके अतिरिक्त बोलने में लार का व्यय होने से पाचन हेतु आवश्यक लार नहीं मिल पायेगी। यदि बहस हुई तो एड्रिनेलिन नामक रसायन निकलेगा और भोजन का पाचन तहस-नहस हो जाएगा। इसीलिए आयुर्वेद में कथन है कि प्रसन्नमन से, मौन रहते हुए भोजन करें। भोज्य पदार्थों की बुराई यानी स्वाद पर नकारात्मक टिप्पणी का भी निषेध किया गया है, उसके स्थान पर भोजन की प्रशंसा करने के स्पष्ट निर्देश हैं, क्योंकि ऐसा करने से पाचन संस्थान आदि पर पैरासिम्पेथेटिक तंत्रिका तंत्र का आधिपत्य होने से सकारात्मक रसायन निकलते हैं और पाचक रसों का स्राव पर्याप्त होता है, साथ ही प्रसन्नता की अनुभूति भी होती है।

बैठकर भोजन करने से कोलोन के कैंसर से बचाव सम्भव: समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों के अनुसार, पीजीआई, चंडीगढ़ के डॉ. राकेश कपूर बताते हैं कि पहले पीजीआई में आने वाले एक लाख लोगों में 1 या दो लोगों में कोलोन कैंसर की बीमारी पाई जाती थी लेकिन खड़े-खड़े भोजन करने के कारण वर्तमान में यह बीमारी 8 से 10 लोगों में होना शुरू हो गई है । वेस्टर्न कंट्री में एक लाख में 40 लोगों में कोलोन कैंसर पाया जाता है।

भीगे पैरों से करें भोजन और रिडिस्ट्रीब्यूशन ऑफ रक्त: मनुस्मृति (4/76) में लिखा है कि भीगे पैर भोजन करें परन्तु शयन ना करें, भीगे पैर भोजन करने से आयु बढ़ती है और भीगे पैर शयन करने से घटती है:- आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् । आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो दीर्घमायुरवाप्नुयात् ।।
महर्षि वेदव्यास कृत पद्मपुराण के (सृष्टि, 51/ 124) अनुसार सूखे पैर भोजन कदापि नहीं करना चाहिए। शरीर कार्यिकी के अनुसार यदि पैर गीले होंगे तो वहां रक्त का संचार तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा और पाचन संस्थान को रिडिस्ट्रीब्यूशन ऑफ ब्लड का अपेक्षित लाभ मिल सकेगा। सामान्यतया खड़े रहकर अथवा पैर लटका कर कुर्सी पर बैठने की स्थिति में गुरुत्वाकर्षण के चलते पूलिंग ऑफ ब्लड के चलते पैर अपेक्षाकृत रूप से कुछ गरम होते हैं। कदाचित इसीलिये पैरों को गीला करने का निर्देश दिया है, यदि पैर सूखे रखें जाते हैं, तो वहां की रक्त नलिकाएं चौड़ी हो जाएंगी और रक्त का अधिक प्रवाह वहां होगा। ओटागो विश्वविद्यालय के शारीरिक शिक्षा के प्रोफेसर और ख्यात वैज्ञानिक डॉ. जिम कॉटर के अनुसार शरीर के तापमान के नियंत्रण में पैरों की मुख्य भूमिका होती है। समग्र दृष्टि से देखा जाए तो गीले पैरों भोजन करना विज्ञान सम्मत है I

ह्रदय भी प्रसन्न: सुखासन में बैठकर भोजन करते हैं तो ह्रदय को पूरे शरीर में रक्त के संचार और पाचन तंत्र को अधिक रक्त संचार के लिए अधिक कार्य नहीं करना पड़ता है, जबकि कुर्सी पर बैठकर अथवा खड़े-खड़े भोजन करने में ह्रदय को अधिक कार्य करना पड़ता है।

पाचन क्रिया का नियमन भी सुव्यवस्थित: बैठकर भोजन करते हैं तो शरीर कार्यिकी के अनुसार पाचन क्रिया के नियमन के लिए आवश्यक विभिन्न अवस्थाएं (फेजेज) ऑप्टिमम (अनुकूलतम) रूप से सुसम्पन्न हो सकती हैं, जैसे सिफेलिक फेज, गेस्ट्रिक फेज, इंटेस्टाइनल फेज आदि, जो भोजन की सुगन्ध, भोजन का आकार-प्रकार, स्वाद, टेक्सचर आदि के तहत निकलने वाले पाचक रसों, यथा लार, आमाशायिक रस, आंतों से निकलने वाले पाचक रस एवं गति आदि अनुकूलतम स्थिति में होते हैं I

सुखासन में भोजन अर्थात् विनम्रता का आगमन: साधू-संत अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए धरती से जुड़कर ही साधना करते हैं, ताकि व्यक्तिगत अहंकार अपना आधिपत्य नहीं जमा सकें। यह व्यक्तिगत अनुभूति का विषय है कि कुर्सी पर बैठने के उपरान्त अन्यों से श्रेष्ठता का बोध न्यूनाधिक रूप से होने की सम्भावनाएं अवश्य होती हैं।

मानव वस्तुतः कुर्सी पर बैठने के लिए कंडीशंड नहीं है। यदि मनुष्य के अवतरण और विकास का निष्पक्षता के साथ विश्लेषण किया जाए तो धरती का पुत्र मनुष्य मूलतः धरती पर बैठकर ही आनन्द की अनुभूति करता है। शताब्दियों से सिंहासन पर बैठकर राजकाज करने वाले राजा-महाराजा भी सुखासन में भोजन करते रहे हैं। यही मानवीय शारीरिक रचना और कार्यिकी की दृष्टि से अनुकूलतम स्थिति है I