मुक्तक/दोहा

ग्रीष्म में प्यासे परिन्दे

गर्मी में प्यासे फिरें,बंधु परिन्दे आज।

कोई रखता नीर नहिं,कैसा हुआ समाज।।
नहीं सकोरे अब रखें,छत,आँगन में सून।
खग को मारे ग्रीष्म नित,काल बने मई-जून।।
भटकें व्याकुल आज खग,दूर-दूर नहिं नीर।
देखो बढ़ती जा रही,मासूमों की पीर।।
ग्रीष्म सताता जीव को,हर लेता है प्राण।
नीर बिना जीवन मिटे,मारे आतप बाण।।
गर्मी का मौसम कहे,जीवों को दो नीर।
वरना उनको नीर बिन,आतप देगा चीर।।
मिटते हैं जलस्रोत नित,रोता देखो नीर।
बंधु आजकल पेयजल,बदल चुका तासीर।।
करुणा इंसां में नहीं,वह अब नहीं उदार।
खग तरसें हैं नीर को,करती गर्मी वार।।
ग्रीष्म काल,है मातमी,खग सारे बेचैन।
खोज रहे हैं नीर को,उनके आकुल नैन।।
जान हलक में है फँसी,बढ़ती जाती प्यास।
ग्रीष्म बना आतंक है,पक्षी तजते आस।।
ग्रीष्म,प्यास,खग,नीर ये,कहते सुन इंसान।
जल थोड़ा दे और को,मत बन तू हैवान।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल-khare.sharadnarayan@gmail.com