राजनीति

मंहगाई की मार गरीबों की थाली पर प्रहार

भारतीय मुद्रा अर्थात रूपया का डालर के मुकाबले  गिरना गहरी चिंता का सबब है।जो लगातार जारी है हद तो तब हो गई जब यह एक डालर के मुकाबले 80,5 रूपये आंकी गयी। जाहिर है इसका असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है। हालांकि अन्य विदेशी मुद्रा के मुकाबले में डाॅलर को छोड़कर रूपये की स्थिति वेहतर है।इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी मजबूत बना हुई है।
रूपये की गिरावट से आयात और निर्यात महंगा होना स्वाभाविक है।जिसके कारण विदेशी मुद्रा भंडार भी प्रभावित होगी और गिरावट आयेगी। भारत जैसे देश उर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर रहा है।और संभव है कि आने वाले दिनो में डीजल पेट्रोल के कीमत में उछाल देखने को मिल सकता है। रोज मर्रा के चीजो, खाद्य पदार्थो, दूध,दही, लस्सी और तमाम चीजो पर जीएसटी लगा कर पहले ही लोगो की जेबें को कतर चुकी मंहगाई और रुलाने वाली है यह बहुत बडी बिडम्बना है।सरकारें अगर बनिया गिरी करने लगे फिर आम जन की मुश्किल तो बढनी तय है।
जब जीएसटी लागू हुई थी उस समय भी मैने कहा था यह व्यवस्था आमलोग के हित में नही है। सारी मलाई उद्योग जगत चट कर जाते है।और जो बचता है वह किसान। आमजन का ठन ठन गोपाल। आज आटा, चावल, दूध, लस्सी तो सीधे गरीबो के थाली पर प्रहार जैसा है जिसका कोई समर्थन नही करता बल्कि, नीति बनाने वाले दिमाग पर हंसने जैसा प्रतीत होता है।आज हमें जेटली जी ,प्रणव जी ,और मनमोहन सिंह जैसे वित्त मंत्री की आवश्यकता महसूस होने लगी है। क्योंकि विगत कुछ वर्षो से अगर कोई मंत्रालय में कौतूहल की स्थिति है तो वह है वित्त । वित्तीय व्यवस्था शार्ट टर्म में लम्बा मुनाफा कमाने वाली एक फर्म बन गयी है।इसे लोगो की परेशानियों से कोई मायने नही रखता।जबकि कम मुनाफा और लम्बी अवधि के नीति निर्धारण कर आवश्यक वस्तु को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। जीएसटी काउंसिल को पुनः एकबार मंथन कर आवश्यक सामग्री के लिए हर पंचायत में एक सरकारी दूकान की व्यवस्था कर सरकारी रेट घपर सामान उपलब्ध कराने की एक योजना सरकारी की होनी चाहिए जहां कोई जाति और कोई कार्ड नही सिर्फ सामान हो।जो सबो को मिले एक कीमत पर ।
टैक्स स्लैब का बदलाव कर भारत सरकार गरीबो की जेब नही थाली से टैक्स उसूल रही है जिसका मै पूरी तरह निंदा करता हूं ।बिहार जैसे प्रदेशों के हालात तो पहले ही खराब है। ऐसे में रोजमर्रा के सामानो पर अतिरिक्त कर लगाकर सरकारे निर्दयता की सारी हदें पार कर चुकी है।यह कैसी नीति है जो गरीबो की थाली छिन रही।क्या भारत में अर्थशास्त्री नही बचे?  या केवल दो ही सबशास्त्री है जो सारे विभाग को देखते है। क्या यही बढ़ता भारत है जहां गरीबो की थाली से कर वसूला जाता है। क्या यह सबका विकास है ? जहां सिर्फ उद्योग जगत के लिए ही नीतियां बनती हो?और उनके खजाना कैसे बढे इसकी नीति बनती हो फिर आम जन की थाली क्या कब्र से भी कफन निकाल लेगी सरकारें।
— आशुतोष 

आशुतोष झा

पटना बिहार M- 9852842667 (wtsap)