गीतिका/ग़ज़ल

उजियारा

अपनी संस्कृति, और संस्कारों से
दिन प्रतिदिन, हम दूर हो रहे
कहां ले जाएगा, प्रगति का पहिया
उजियारों से दूर हो रहे ।।

विदेशी ज्ञान, पाश्चात्य गुणगान
संकुचित सोच,निरर्थक अभिमान
अपनी उपलब्धियों, को नकारते
ईर्ष्या, घृणा से, भरपूर हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे ।।

हमारी विरासत, हमारी सभ्यता
जगत प्रसिद्ध, हमारी मानवता
अपने आदर्शों की, देते तिलांजलि
ऐसे क्यों भाव, विभोर हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे ।।

परिश्रम और, निस्वार्थ भाव से
सेवा को सदा, रहते थे आतुर
ऐसे कौन से, पाठ पढ़ लिये
स्वार्थ से अब, परिपूर्ण हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे।।

आंधी कैसी यह, आधुनिकता की
बिसरा दी पूंजी,पुरखों ने जमा की
अपने ग्रन्थों की, शिक्षा भूलकर
फ़ालतू दिखावे में, मशगूल हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे ।।

झूठी आन,बान, शान में अटके
विदेशी वस्तुओं के, मोह में भटके
विलासिता का, मार्ग अपनाकर
सात्विक विचारों से, दूर हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे ।।

व्यर्थ की चकाचौंध, से बचिये
‌अपनी उपलब्धियों, पर गर्व करिये
ज्ञान का भंडार यहां, भरा पड़ा है
विदेशी अपनाते, हम दूर हो रहे
उजियारों से दूर हो रहे ।।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई