गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

नींद से उसने जगा रक्खा है।
अपने नज़दीक बिठा रक्खा है।

रूबरू आज उसको देखेंगे,
जिसको नज़रों में बसा रक्खा है।

वो समझता है और कुछ मुझको,
मैंने कुछ और बता रक्खा है।

सामना उससे हो तो देखेंगें,
जिसने बरसों से सता रक्खा है।

कहने को ज़िंदगी है, पर मैंने,
नाम जीने का सज़ा रक्खा है।

आजकल ‘जय’ तुम्हारी ग़ज़लों ने,
आस्मांँ सिर पे उठा रक्खा है।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से