कविता

पिता

धूप में जलते उसके पाँव,
फिर भी बढ़ता अगली ठाँव।
कुछ पैसे बच जायें जेब में,
घिसट रहा वह माँओं माँओं।
भूख लगी तो पानी पीता,
कभी-कभी आँसू पी जीता।
बच्चों के अच्छे कपड़े हों,
फटी क़मीज़ धीरे से सीता।
शाम ढले जब घर को आता,
सारे गम बाहर रख जाता।
परिवार की ख़ुशियों में खुश,
बच्चों पर सर्वस्व लुटाता।
घर भर के वह ताने सुनता,
तन्हाई में निज सिर धुनता।
अपने दुःख की फ़िक्र ज़रा ना,
सबके सुख हित जीता मरता।
नारियल जैसा कठोर बाहर से,
भीतर कोमल मृदुल स्वभाव से।
भीतर भरा हुआ वह सागर सा,
जब छलका अपनों की आह से।
— डॉ. अनन्त कीर्तिवर्द्धन