कविता

अमराई

चलो ! रे ले चल भाई ,
मास जेठ की तपिश झुलसाई ,
बागों में ले चल चारपाई,
बैठ गीत गुनगाई , बहे न पुरवाई ,
ललचे जिया मोरा देख अमराई ,
चलो री चल सखी ,चलो रे माई।
आज गुल्ली  –  डंडा खेल खूब होई रे,
सिलो  –  पाती में डंडी दूर फेंकल जाई रे ,
सब मिल कान्हा के छकाई ,
गुड़ खाकर खूब पिवाई होई रे ताई,
फिर आम तोड़के नमक लगाई ,
होए खूब खवाई रे ,
चलो री बहनी , चलो रे भौजी ,
आज बहुते आनंद आई ।
— चेतना प्रकाश चितेरी

चेतना सिंह 'चितेरी'

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