सामाजिक

उचित विवाह

सदियों से हमारे समाज में विवाह का एक ढंग या तरीका बना हुआ है। खास बात यह है कि यह सभी धर्मो में है और सभी स्थानों व देशों में है। एक बात जो सब जगह है वह है कि विवाह तभी पूर्ण है जब उस को समाज, दोनों परिवारों की व उस समाज के कायदे कानून की स्वकृति है। हमारे देश व बहुत से अन्य देशों में विवाह न केवल लड़का लड़की का मिलन व बन्धन है बल्कि दो परिवारों व उनके रिश्तेदारों का एक दूसरे के साथ मिलन व बन्धन है। नए रिश्ते बनते हैं। भाबी, फूफा, साढू, सम्बन्धी शादी के बाद ही नए रिश्ते शादी के बाद ही बनते हैं। एक परिवार दूसरे परिवार के पास आने जाने लगता है। यह तभी सम्भव है जब शादी लडका लड़की के मिलन तक सिमित न रह कर दोनों परिवारों की स्वकृति व माता पिता की आर्शीवाद के बाद हो। परन्तु इस में जो सब से अहम चीज है वह है लड़का लड़के की आपसी पसन्द बाकी सब इसके बाद है। यही स्वामी दयानन्द ने उचित और वेदों के अनुरूप बताया। उन्होने यह बात उस समय की जब कि लड़का व लड़की के आपसी पसन्द या गुणों के आधार पर मेल का तो कोई स्थान ही नहीं था। अधिकतर वर बधु शादी के बाद ही एक दूसरे को देखते व एक दूसरे के बारे में जानते थे। अधिकतर स्थानों पर आसामान्यतांए अधिक व सामान्यतांए कम होती थी कारण रिश्तों को सुझाने वाले व कई बार अन्तिम स्वकृति देने वाले पड़ित होते थे।

इसलिए अच्छी व उपयुक्त शादी वही है जिस में लड़का लड़की एक दूसरे को पसन्द कर के अपने माता पिता को आगे की बात का कार्य सौंप दें। परन्तु यह सब कुछ भारतीय समाज में इतना आसान नहीं। इस में माता पिता की जिम्मेवारी बहुत बड़ जाती है। कई बार उन्हें अपनी आकांक्षाओं को भी दवाना पड़ सकता है। परन्तु यह उनका कर्तव्य बन जाता है कि वह अपने बेटे व बेटी की पसन्द को सब से अधिक महत्व दें परन्तु यह भी आवश्यक है कि लड़का लड़की दोना, आयु, शिक्षा व जिविका के आधार पर इस योग्य हो चुके हों। अगर कोई 16 साल की लड़की यह कहे कि उसकी हम उमर के साथ जो कि कमाता भी नहीं है शादी कर दी जाए तो ऐसे किसी अनुमोदन को ठुकराना ही माता पिता के लिए सही हे।। बेटा बेटी का भी यह कर्तव्य है कि अपने माता पिता को अपनी पसन्द के बारे में बताने के बाद उन की जायज बातो को माने। आज माता पिता बहुत प्रगतीशील व स्वावलम्बी है वे भी बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी मानते है। अधिक जगह पर दहेज आदि कि कोई बात नहीं होती। ऐसे में लड़का लड़की यदि आगे आकर माता पिता से बात करते हैं तो शादी ऐसी हो सकती है जिस में सभी की स्वकृति व खुशी हो जिस में समाज, दोनों परिवारों की व उस समाज के कायदे कानून की स्वकृति हो। बहुत स्थानों पर हो भी रही है। खास कर जहां माता पिता दोनों पढ़े लिखें और प्रगतीशील विचारों के है। यह भी सत्य है आज माता पिता अपने बच्चें की पसन्द की बहुत का बहुत आदर करते है। यह सोच हमारे समाज में आ चुकी हे। इसलिए आज जब लड़का या लड़की किसी को शादी के लिए पसन्द करते हैं तो यह विचार उन को करना है कि क्या वे दोनो निभा सकेगें। क्या वे एक दूसरे के पूरक हें। क्या यह बन्धन एक दूसरे के परिवार व समाजों के अनुकूल है। क्या यह उनकी मृत्यं तक चल सकता है। परन्तु यह समझ एक आयु के बाद ही आती है। 16 साल की लड़़की को इन बातों की कोई समझ नहीं होती।

आज व पहले समय की शादी में एक बड़ा फरक यह है कि पहले लड़की के आगे के जीवन की सुऱक्षा की जिम्मेवारी लड़के के परिवार पर होती थी यह आवश्यक नहीं था कि लड़की को लड़का पसन्द है। यह उस समय तक सही ठहराया जा सकता है जब लड़की पढ़ी लिखी व अपने पैरों पर खड़ी न हो। अभी भी हमारे देहाती क्ष्ेात्रो मे ं ऐसी शादियां अधिकतर होती है।ं परन्तु आज के युग में लड़की की पसन्द पहले हें

इस परिवर्तन के बाबजूद यदि लड़का लड़की अपनी मनमानी करते हुए शादी के बन्धन के बिना या फिर गुप्त शादी कर एक साथ रहने का निर्णय लेते हैं तो वह हर प्रकारे से गलत है व उसके गलत परिणाम सामने आ रहें हे। रस्म, प्रथा व रिवाज रिश्ते को मजबूती प्रदान करते है।

भारत ही नहीं सभी देश इस स्थिती से गुजरें हैं चाहे योरप या जापान, विवाह तभी पूर्ण माना जाता था जब उस को समाज, दोनों परिवारों की व उस समाज के कायदे कानून की स्वकृति थी। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के गलत अर्थ ने शादी के रिवाज व रस्म को बहुत ही चोट पहुंचाई। इस के परिणाम भयंकर है। बड़ते हुए तालाक व गुमनामी का जीवन जीती हुई महिलांए इस का उदाहरण है। बच्चे पैदा न करना और बिना विवाह के लडका लड़की का एक साथ जीवन जीना भी भी इसी का कारण है।

आवश्यकता है कि सभी विवाह के इस रिवाज परम्परा को सुगठित करें। बच्चों से भी अधिक जिममेवारी माता पिता पर है वह बच्चों की पसन्द को महत्व दें न ही दूसरी फजूल की बातों को। मैं तो समझती हूं कि स्कूल में यह पढ़ाई का विशय हो।

— नीला सूद

नीला सूद

आर्यसमाज से प्रभावित विचारधारा। लिखने-पढ़ने का शौक है।