कविता

अंधेरा

शाम की डोर थामे
रात ने दस्तक दी..
दरवाजा खोला तो
स्याह अंधेरा था सामने!
दिये की लौ थामे मैं–
लगी अंधेरा मिटाने
तभी हवा का एक तेज झोंका आया
लगा दिये को बुझाने
हवा और दिये के संघर्ष में
हवा की हुई जीत
कंपकंपाती लौ के साथ
दिया गई बूझ  !!
इस घुप्प अंधेरे में
हाथ हाथ न सूझे …
तभी दूर कहीं बिजली कौंधी
सोचा ———–
शायद बिजली की रौशनी
दूर कर दें इस स्याह अंधेरे को!
लेकिन क्षणभर को बिजली
कौंध कर हो गई गुम
उस स्याह अंधेरे में!!
अब न कोई आसरा रहा
जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी
काफी न थी इस अंधेरे को
दूर करने को _________!
फिर भी प्रकृति की प्रयास
जारी रही हमारा साथ देने की !!!
ये अलग बात है कि
उसकी हर कोशिश के साथ
अपनी भी उम्मीद
डूबती नजर आयी
इस स्याह अंधेरे में
— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P