कविता

हाथों की लकीरें

हाथों की लकीरों के भरोसे
कब तक पानी में लाठी मारकर
पानी को चीरने में समय गंवाते रहोगे,
अपने भाग्य को कोसते रहोगे।
उठो! जागो और निकलो
इन लकीरों के मकड़जाल से,
भरोसा करो खुद पर अपने श्रम पर
अपने बाजुओं पर।
हाथ की लकीरें बदल जायेंगी
रुखी किस्मत भी जाग जायेंगी।
जिन हाथ की लकीरों का तुम रोना रो रहे हो
वे ही तुम्हारी राह के कांटे हटायेंगी, फूल बिछायेंगी
तुम्हारे जीवन में खुशियां फैलाएंगी।
नाज़ होगा तब तुम्हें भी अपने हाथों की लकीरों पर
जब यही लकीरें नाचेंगी खायेंगी मुस्कुराएंगी
तुम्हारे जीवन को महकाएंगी।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921