लघुकथा

दिल का टुकड़ा

छोटे से अक्षय का जन्मदिन था। रवीना ने पूरे सोसाइटी के बच्चो को और अपनी कुछ सखियों को भी निमंत्रित किया था। शानदार सजावट थी, डांस गाने और कई गतिविधियों में बच्चे मस्त थे। आज अक्षय के पहला जन्मदिन था, रवीना के चेहरे पर खुशियां छलक रही थी। अचानक रवीना की आंखे पिछले वर्ष की यादों में घूमने लगी। घर परिवार, समाज ने उसपर बांझ का ठप्पा लगा दिया था। जिद करके श्रीमान जी को अनाथाश्रम ले गई। कई बच्चे तीन,चार वर्षों के भी देखे, फिर अचानक उसने पूछा, “कोई नवजात बच्चे भी आते हैं क्या?”
संचालिका ने घूर कर देखा और बोली, “कल एक अभागे प्यारे से लड़के को कोई रेल की पटरी पर छोड़ गया, उसके करुण रुदन की आवाज यहां के रामू के कानों में पड़ी, उसका घर वहीं है, इसलिए रात के सन्नाटे में सुनकर वह यहां ले आया। चलिए दिखाती हूँ।” और वहां जाने पर उससे, उस बच्चे का रोना सहन नही हुआ, पूछकर उसने गोद मे ले लिया। कुछ मिनट बाद श्रीमान जी ने कहा, पालने में डाल दो। और उस नादान ने जोर से उसका दुपट्टा मुट्ठी में लिया था। सहायिका ने आकर एक मिनट की कोशिश में किसी तरह छुड़ाया। और उसने उसके हाथ की मजबूती दिल मे महसूस करी, आँखे भीग चुकी थी, मन कुछ निर्णय ले चुका था। और वह अब उसके दिल का टुकड़ा अक्षय था।
तभी श्रीमान जी ने कहा, “जल्दी आओ केक नही काटना क्या?” और रवीना चल पड़ी।
सबको खाना सर्व करते हुए एक महिला के शब्द उसके कानों में पड़े, “जन्मदिन का जश्न इतना विशाल कर रहीं हैं, पता नहीं, बड़े होकर माँ का दर्जा सही में देगा या नही, क्योंकि अपना खून अपना ही होता है।”
रवीना सोच में पड़ गई… वाह रे समाज…चित भी मेरी पट भी मेरी !!
— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर