इतिहास

युग प्रवर्तक साहित्यकार : प्रेमचंद

सारांश :

बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट और कहानी जगत के पितामह कहा जाता है। उन्होंने साहित्य जगत में एक नई दृष्टि कि साहित्य सृष्टि प्रदान की थी। उन्होंने साहित्य जगत को एक नया आयाम देकर नए रूप में ढाला था। उन्होंने अपने साहित्य में आम जनता के दू:ख-दर्दों को उकेरा था। उनके साहित्य में सामान्य जन के पात्रों के माध्यम से जन-जन की समस्याओं को जनमानस में अनोखे अंदाज से जनता के दिलों तक पहुंचाया था। उन्होंने सदियों से पीड़ित दलितों, स्त्रियों, शोषितों, वंचितों, गरीब मजदूरों, किसानों की आवाज अपने साहित्य के माध्यम से जन-जन में क्रांति के स्वरों को पहुंचाने का किया था। वे मानवतावादी। प्रगतिशील विचारों के धनी थे।  न्याय,आदर्श एवं यथार्थ के पैरोकार थे।साहित्य साधना के माध्यम से एक वैचारिक क्रांति के अग्रदूत थे।

जीवन परिचय :

“प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 में बनारस के लमही गाँव में हुआ था। उन मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे शुरुआती दौर में नवाबराय के नाम से लिखते थे। प्रेमचंद का बचपन अभावों में बीता और शिक्षा बी.ए. तक ही हो पाई।जब वे 7 वर्ष की अवस्था में थे तब उनकी मां का देहांत हो गया था। उनकी 15 वर्ष की आयु में उनसे बड़ी उम्र की लड़की के साथ विवाह कर दिया था। वह अत्यंत झगड़ालू स्वभाव की एवं कर्कश थी। उनके विवाह के पश्चात पिताजी का भी देहांत हो गया था। उन्होंने दूसरा विवाह बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।

उन्होंने शिक्षा विभाग में नौकरी की परंतु असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और लेखन कार्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गए। सन् 1936 में इस महान साहित्यकार का देहांत हो गया।

          “प्रेमचंद की कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में संकलित हैं। सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उन्होंने हंस, जागरण, माधुरी आदि पत्रिकाओं का संपादन भी किया। कथा साहित्य के अतिरिक्त प्रेमचंद ने निबंध एवं अन्य प्रकार का गद्य लेखन भी प्रचुर मात्रा में लिखा। प्रेमचंद साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम मानते थे।”¹

“वे साहित्य को स्वांतः सुखाय न मानकर सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम मानते थे। वे एक ऐसे साहित्यकार थे, जो समाज की वास्तविक स्थिति को पैनी दृष्टि देखने की शक्ति रखते थे। उन्होंने समाज-सुधार और राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत अनेक उपन्यासों एवं कहानियों की रचना की।”²

वे साहित्य के बारे में कहते थे- “साहित्य वह जादू की लकड़ी है जो पशुओं में, ईंट-पत्थरों में, पेड़-पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है।”³

 प्रेमचन्द का बचपन का नाम  धनपतराय श्रीवास्तव था। वे ‘नवाबराय’ नाम से साहित्य लेखन करते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘जमाना’ के सम्पादक मुंशी दयाराम निगम ने उन्हें ‘प्रेमचन्द’ नाम लिखने की सलाह पर वे प्रेमचन्द लिखने लगे। बाद में उन्हें प्रेमचन्द्र से ख्याती मिली । उनके नाम से  साहित्य युग को तीन काल खण्डों में विभक्त किया गया। 1. प्रेमचन्द से पूर्व हिन्दी कहानी (सन् 1900 ई. से 1915 ई. (2.) प्रेमचन्द युगीन हिन्दी कहानी (सन् 1916 से 1936,(3.) प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी (सन् 1936 ई. से 1950 ई.) । प्रेमचन्द से पूर्व में जो साहित्य लिखा जा रहा था वह मनोरंजन के लिए लिखा जा रहा था और उसमें कल्पना तत्व से सराबोर था।  प्रेमचन्द मानवतावादी, यथार्थवादी, आदर्शवादी और न्याय प्रीय साहित्यकार थे।

वे एक महान् साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक महान व्यक्तित्व के धनी और आदर्श गुणों से संपन्न इंसान थे। जैसा साहित्य  लेखन में वे जिन बातों को महत्व देते थे वैसे वे स्वयं उसके अनुगामी थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से सामंती हुकूमत का विरोध किया था। उनमें नैतिकता एवं संवेदनशीलता का सागर हिलोरे लेता रहता था। उनका बाहरी रूप इतना आकर्षक नहीं था किंतु उनका आंतरिक सौंदर्य लाजवाब था।वे अपने साहित्य सेवा के माध्यम से सामाजिक न्याय, समता की स्थापना एवं शोषण, अत्याचार से मुक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे। ऊंच-नीच का, गरीब अमीर का भेदभाव रहित समाज की कल्पना ही नहीं की बल्कि उसे जीवंत रूप देने का अपनी लेखनी के माध्यम से भरसक प्रयास किया था। वे जनवादी और प्रगतिशील विचारों के साहित्यकार थे।वे क्रांतिकारी साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक समाज सुधारक कहानीकार थे।

प्रेमचंद्र पुणे चिंतन के माध्यम से साहित्य में आदर्श और यथार्थ के साथ-साथ देश की तात्कालिक परिस्थितियों पर आमजन की समस्याओं पर दलित, वंचित,नारी उत्पीड़न, किसान, मजदूर पर मार्मिक चित्रण किया है।प्रेमचंद ने  300 से ज्यादा कहानियां और एक दर्जन उपन्यास लिखे थे।उनकी रचना धर्मिता जन-जन की प्रिय है। प्रेमचंद को ‘उपन्यास सम्राट’,”कलम का सिपाही’,’कलम का जादूगर’ जैसी उपमाओं से साहित्य मनीषियों ने सुशोभित किया हैं।

वे सादगी प्रिय इंसान थे। प्रेमचंद सादा जीवन एवं सरल व्यक्तित्व के धनी थे। वे सादा जीवन उच्च विचारों एवं जमीनी हकीकतों से सदा जुड़े रहे। वे कभी दिखावे में विश्वास नहीं करते थे। वे हमेशा सादा  जीवन जीने में ही विश्वास करते थे। वे अपने को कलम का मजदूर मानते थे। वह अत्यंत स्वाभिमानी भी थे। एक बार वे घर पर आराम कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे उस दरमियान वहां से स्कूल स्पेक्टर गुजरा। प्रेमचंद ने उन्हें उठकर अभिवादन नहीं किया। सब इंस्पेक्टर के पूछने पर प्रेमचंद ने कहा कि- “मैं जब स्कूल में रहता हूं तब नौकर हूं। बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूं।”⁴

प्रेमचंद का साहित्य यथार्थ और आदर्श का बोध कराने वाला और सामान्य जनता के हित में न्याय करने वाला साहित्य रहा है। वे जनता को अपना सेवक मानते थे। वे एक सेवाकारी साहित्यकार थे। गरीब मजदूर किसान की पुकार, उपेक्षित, शोषित का दर्द, पीड़ित एवं प्रताड़ित स्त्रियों की आवाज तो वंचितों के हक के पैरोकार थे।उनके पास जब राय शादी का प्रस्ताव आया तो वह उस पद को ढुकराते हुए पत्नी शिवरानी देवी से कहने लगे- “तब मैं जनता का आदमी ना रहा कर एक पिट्ठू रह जाउंगा।” -5

वे जन पीड़ा के सदा हिमाकत करने वाले साहित्य पुरोधा थे। वे जन साहित्यकार थे। जनता की पीड़ा, दु:ख- दर्दों को दिल से गाने वाले साहित्यकार थे। इसलिए वे कहते थे-“अगर जनता की राय साहबी मिलेगी तो सिर आंखों पर। गवर्नमेंट की रायसाहबी की इच्छा नहीं।”,6

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने प्रेमचंद जी के साहित्य एवं प्रेमचंद जी को जानने के लिए कहा था-

“अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा, आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं, तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। समाज के विभिन्न आयामों को उनसे अधिक विश्वसनीयता से दिखा पाने वाले परिदर्शक को हिंदी-उर्दू की दुनियाँ नहीं जानती। परंतु प्रेमचंद सर्वत्र ही एक बात लक्ष्य करेंगे। जो संस्कृतियों और सम्पदाओं से लद नहीं गए है, अशिक्षित-निर्धन है, जो गंवार और जाहिल है वो उन लोगों से अधिक आत्मबल रखते हैं, और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं, जो शिक्षित है, चतुर है, जो दुनियादार है, जो शहरी है। यही प्रेमचंद का जीवन-दर्शन है।”7

प्रेमचंद अपने साहित्य के शुरुआती दौर में उर्दू लिखते हैं फिर बाद में खड़ी बोली हिंदी में लिखते हैं-

 “प्रेमचन्द ने खड़ी बोली को खड़ा किया और बोली को भाषिक स्वरूप भी प्रदान किया। उन्होंने सरल-सहज,सुगम-सुबोध भाषा को अपनाया तथा प्रचलितक अरबी-फारसी और अंग्रेजी शब्दों का व्यवहार भी किया। मुहावरों- कहावतों से भाषा को सजाया-संवारा तथा जन आकांक्षाओं के अनुरूप भाषा गढ़न और कहन को धरती दी। “8

प्रेमचंद एक आदर्श समाज के साथ-साथ अपनी भाषा के भी प्रबल पक्षधर थे। वे कहते हैं कि “जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा उसका समाज भी अच्छा होगा। समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। यह तीनों साथ साथ चलने वाली चीजें हैं।”9.

 डॉ० नगेन्द्र ने प्रेमचन्द के साहित्य में खूबियों को गिनाते हुए कहा था कि – “प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को ‘मनोरंजन’ के स्तर – उगकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया।”10

उन्होंने अपने जमाने में अपने साहित्य में आदर्श को स्थापित कर जन-जन तक पहुंचाने के लिए वे तीन वर्ष मुम्बई में रहे और फिल्मों में अपने साहित्य कृतियों को उतारा था किन्तु दुर्भाग्य यह था जैसा वे चाहते थे वैसे फिल्म निर्देशक नहीं, तब उन्होंने कहा था कि-“यह तो सीधे-सीधे प्रेमचन्द की हत्या है। “¹¹

प्रेमचन्द ने अपने कथा साहित्य में देश भक्ति को पिरोया है। जन आक्रोश को अपनी लेखनी के माध्यम से साहित्य में उतारा है। मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है- “बीसवीं सदी के भारतीय समाज के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति के लिये इस देश की जनता का संघर्ष । प्रेमचन्द्र उस संघर्ष की वास्तविकताओं और संभावनाओं के अनन्य कथाकार होने के कारण बीसवीं सदी कुशल कलाकार है।”¹²

प्रेमचन्द्र राष्ट्र प्रेमी थे। प्रेमचन्द देश की गुलामी की असली वजह को बताते हुए कहते हैं-

“हम इसलिए गुलाम है कि हमने खुद गुलामी की बेडियाँ अपने पैरों में डाल ली हैं। जानते हो यह बेड़ी क्या है ? आपस का भेद। जब तक हम इस बेड़ी को काटकर प्रेम करना न सीखेंगे। सेवा में ईश्वर का रूप न देखेंगे, गुलामी में पड़े रहेंगे।”¹³

  • उन्होंने राष्ट्रप्रेम से प्रभावित होकर ही अपना प्रथम कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ लिखा था। जो अंग्रेजों ने जब्त कर किया था।

       प्रेमचंद जी ने अपने जीवन काल में महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे थे- सेवासदन प्रेमाश्रम,रंगभूमि कायाकल्प,  निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि प्रमुख उपन्यास है। प्रेमचंद जी उपन्यास के बारे में कहते हैं-

“मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।”¹⁴

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में एक सामान्य ‘पात्रों के माध्यम से उपन्यासों में साहित्य को एक नई दिशा देने के काम किया था। सामान्य पात्रों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की दशा और दिशा का चित्रण सहज, सरल ढंग से करने की  कारीगरी उनमें अद्‌भूत थी। उनके द्वारा बहुत ही समृद्ध उपन्यास ‘गोदान’ जो की पुरे भारत की उस जमाने की यथार्थ तस्वीर बयाँ करता है।

“हिन्दी उपन्यास व कथा साहित्य में प्रेमचन्द का आविर्भाव नवीन युग का परिचायक है। प्रेमचन्द ने साहित्य लेखन केवल मात्र मनोरंजन के लिये ही नहीं किया अपितु उसके माध्यम से मानव जीवन व उसकी समस्याओं का यथार्थ व कलात्मक सजीव चित्रण किया है। प्रेमचन्द ने नारी को मनोभावना, वेदनाओं उड़ेगी आकाक्षाओं को लेकर अपना लेखन किया। वो नारी सशक्तिकरण के पक्षकार थे। ऐसे में तत्कालीन युग में नारी शिक्षा, विधवा विवाह, दहेज प्रथा व अनमेल विवाह को लेकर प्रेमचन्द ने अपने पात्रों को गढ़ा।15 प्रेमचन्द ने स्त्री के राष्ट्रीय आंदोलनों में सहयोग को सराहा। इस समय स्त्री के उत्थान के लिए जितने भी प्रयास थे, उन्होंने उनकी भी दिल खोलकर प्रशंसा की, उन्हीं में से शारदा एक्ट एक है। प्रेमचन्द ने लिखा है, “हिन्दू समाज ने अपनी देवियों के साथ बहुत दिनों तक जुल्म किया और अब इस जुल्म की जड़ खोदने विलम्ब नहीं करना चाहिए। हमें आशा है कि मिस्टर शारदा के बिल का देश स्वागत करेगा।”16

प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में नारी को उच्च स्थान ही नहीं दिया बल्कि पूर्ण रूप से न्याय किया। पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को जब शोषण और प्रताडित होते देखा तब उन्हें अत्याचार के आनि कुण्ड से तपती नारी को अपने साहित्य साधना के माध्यम से उनके प्रति न्याय  की भरपूर हिमाकत की। घर में भी वे अपनी पत्नी शिवरानी देवी को बराबर महत्त्व देते थे। शिवदानी देवी ने लिखा है –“मेरी बातों को वे बहुत महत्त्व देते थे। अपने जीवन में कोई भी काम उन्होंने मेरी सलाह के बिना नहीं किया।” 17

प्रेमचन्द अपने साहित्य में नारी पात्रों को सशक्त रूप से पेंश करते हुए पुरुष के समान आंकते है हुए कहते है-

“जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष  गुण आ जाए तो वह कुलटा बन जाती है।”18

प्रेमचन्द्र ने नारी के संघर्ष के हर पक्ष को अपने साहित्य में उजागर कर उन्हें मजबूत बनाने का कार्य किया है। उनके साहित्य में आम पीडित उपेक्षित, संघर्षशील नारी के दर्द पीड़ा को उजागर किया है- ” प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य में नारी एक अलग ही रूप तथा अस्तित्व के साथ खड़ी मिलती है। प्रेमचन्द ने नारी को सिर्फ प्रेरक शक्ति के रूप में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली साथी के रूप में देखा है। उन्होंने नारी हृदय की उन शाश्वत भावनाओं के आधार पर अपनी रचनाएँ की जिनकी युगों से उपेक्षा होती आयी थी।”19

प्रेमचन्द्र  समाज के सर्वागिण विकास हेतु  सुशिक्षित नारी की अपेक्षा करते है। वे शिक्षित नारी से ही भारतीय समाज में उजाले की बात करते है -“जब तक सब स्त्रियाँ शिक्षित नहीं होंगी और सब कानून अधिकार उसको बराबर न मिल जायेंगे, तब तक महज बराबर काम करने से ही काम नही चलेगा।”20

प्रेम चन्द्र से महिलाओं के अधिकारों के सदा हिमायती थे । शारदा बिल के प्रस्ताव को लेकर उन्होंने श्री हरविलास शारदा को लिखा कि ‘आपका यह प्रस्ताव जिस दिन पास होगा करोड़ों महिलाएँ आपको ह्रदय से आशीर्वाद देंगी और आपकी सदैव कृतज्ञ ररहेग।”-²¹ प्रेमचन्द ने अपने जीवन में 300 से अधिक कहानियों लिखी । उनकी कहानियों को ‘मानसरोवर’ के नाम से 8 खण्डों में संकलित किया गया है। उनकी प्रमुख कहानियां: पूस की रात, कफन, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा,बड़े घर की बेटी,सौत,नमक का दरोगा,सवा सेर गेहुँ, बड़े भाई साहब, ईदगाह, ठाकुर का कुआं आदि कहानियाँ प्रमुख हैं।आज भी उनकी कहानियां प्रासंगिक है।उनकी कहानियों के बारे में आलोचर साहित्यकार डॉ. रामविलास शर्मा कहते है – ” प्रेमचन्द्र अपनी कहानियों में एक शिक्षक के रूप में नजर आते हैं। पारिवारिक समस्याओं से लेकर राजनीतिक आन्दोलन तक वह सभी क्षेत्रों से कहानी के लिए विषय वस्तु लेते हैं उनकी कहानियों का संबंध उन समस्याओं से हैं जिनका सामना आए दिन लोगों को अपने जीवन में करना पड़ता है।”²²

प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में अनेक रुढ़ीवादी परम्पराओं का विरोध किया अंधविश्वास, धूआछूत, धार्मिक शोषण, यौन शोषण, विधवा विवाह, जात-पाँत, ऊंच-नीच, गरीब- आदि कुप्रथाओं को मिटाने का भरसक प्रयास किया। प्रेमचन्द अपनी कहानी ‘सद्‌गति’ में निम्न जाति के भेद-भाव को उजागर करते है। उच्च वर्ण कहे जाने वाले इंसान  मानवता की

सारी हदे लांघ जाते है। मानवता से गीरे इंसान भला कैसे उच्च हो सकते हैं। उनकी यह कहानी आज भी अति प्रासंगिक है। मनुष्य के पशु से बदतर समझना। मानवता खुद चिख पड़ती है। – “पत़्तल में सीधा भी देना हो मुदा तू छूना मत। झूरी गोंड की लड़की को लेकर साहू की दुकान से सब चीजें हो आना।सीधा भरपुर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तु कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जाएगा।”²³

प्रेमचंद की कहानियों में वृद्धों कि समसयाओं का जिक्र बड़ी गहराई के साथ किया है। उन पर होने वाले अत्याचार, शोषण, एवं अन्याय का। उनकी प्रसिद्ध कहानी बूढ़ी काकी में वे लिखते है- “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।”²⁴

डॉ.कान्ति लाल यादव  

  • -: संदर्भ सूची:-

1.क्षितिज भाग-1 (पुस्तक), कक्षा 9, माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान अजमेर, प्रेमचंद जीवन परिचय, संस्करण 2010,पृष्ठ संख्या -03

2.अंतरा भाग 1 (पुस्तक), प्रेमचंद (जीवन परिचय),कक्षा 11, माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान अजमेर, राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल जयपुर, (प्रकाशक), प्रथम संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 03

3.प्रेमचंद, (जीवन परिचय),आरोह (पुस्तक), कक्षा 11, माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, राजस्थान पाठ्य पुस्तक मंडल जयपुर (प्रकाशक), वर्ष 20 दिसंबर 2005, पृष्ठ संख्या 03

4.देवी,शिवरानी, ‘प्रेमचंद घर में'(जीवनी-पुस्तक) सरस्वती प्रेस बनारस (प्रकाशन), प्रथम संस्करण 1988 पृ.सं. 54

5.देवी, शिवरानी….वही….. 160

6…..……….वही ………..161

7. सिंह, शिवप्रसाद, ‘एक व्यक्ति एक युग’ (लेख) पृष्ठ संख्या -01

8.पाठक डॉ. विनय कुमार (भूमिका से), डॉ. पायल लिल्हारे एवं डॉ. अचला पाण्डेय (द्वि सम्पादक), ‘प्रेमचन्द का कथा साहित्य विविध आयाम’ (पुस्तक), वान्या पब्लिकेशंस, कानपुर (उ.प्र.) वर्ष -2022, पृ.सं.6

9.देवी शिवरानी, ‘प्रेमचंद घर में'(जीवनी पुस्तक)…….. इसकी संख्या 94

10. नगेन्द्र, डॉ., हिन्दी साहित्य का इतिहास, अध्याय-16, पृ.सं.574

11.प्रेमचंद रचनावाळी भाग 19, पृ.सं.-144

12 प्रेमचन्द के आयाम – – मैनेजर पाण्डेय,पृ.सं.-30

13. प्रेमचन्द, कर्मभूमि, पृ. सं.237-238 

14. चतुर्वेदी, सुश्री स्मिता (संकलन और संपादन कर्ती) प्रेमचंद, उपन्यास (लेख),प्रेमचंद्र विवेचना आलोचनात्मक लेखों का संग्रह(पुस्तक; प्रेमचंद्र का विशेष अध्ययन), वर्ष मई 2012,पृ.स.7

15.तैलंग, सुधा, ‘प्रेमचंद की कालजयी रचना निर्मला आज भी प्रासंगिक’ (लेख), मधुमति (पत्रिका), राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, डॉ. प्रमोद भट्ट (प्रबंध संपादक) वर्ष- 54, अंक -7, जुलाई,2014,पृष्ठ संख्या 14

16.शर्मा, डॉ. मधुलिका ‘प्रेमचंद का स्त्री विमर्श’ (विमर्श लेख) प्रधान संपादक-वेदव्यास,  मधुमति(पत्रिका) राजस्थान साहित्य अकादमी,वर्ष 53  : अंक 3 : मार्च 2013 पृष्ठ संख्या 37

17.शिवरानी ….वही…….- पृ.सं. 56

18.प्रेमचन्द्र, गोदान उपन्यास,मलिक एंड कंपनी प्रकाशन चौड़ा रस्ता जयपुर, संस्करण वर्ष 2006, सं. 144

19. प्रेमचन्द, चिंतन एवं कला, पृ.संख्या 209

20.शिवरानी देवी………पृ.सं. – 260

21.शिवरानी देवी…… पृ. सं. 260

22.शर्मा, रामविलास, प्रेमचन्द और उनका युग (पुस्तक), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 10वाँ सं. 2018, पृ.सं.117

23. अग्रवाल, बलराम (संपादक),प्रेमचंद, दलित जीवन की कहानियाँ, साक्षी प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, संस्करण 2017,पृ.सं. 21

24.खान, डॉ.एम. फिरोज (संपादक), प्रेमचंद वृद्ध जीवन की कहानियां, विकास प्रकाशन, कानपुर, संस्करण-2021,पृ.सं.43

डॉ. कांति लाल यादव

सहायक प्रोफेसर (हिन्दी) माधव विश्वविद्यालय आबू रोड पता : मकान नंबर 12 , गली नंबर 2, माली कॉलोनी ,उदयपुर (राज.)313001 मोबाइल नंबर 8955560773