लघुकथा

आत्मा की मुक्ति

मेरी माँ मर गई है,उसे शमशान तक सजा-धजाकर ले जाने की तो सामर्थ्य नहीं है मुझमें,आखिर क्या करूँ..? जो इस ठेेले से कमाता,पेट की भूख और माँ की दवाई में खर्च हो जाता।कोशिश करता पर कुछ बचा नहीं पाया। बचाता भी किसके लिए,डॉक्टर साहब ने भी तो कहा था ,जबतक दवा-दारू चलेगी यह भी चलेगी।

राजाराम अपने मन का संताप घर में छोड़कर पास-पड़ोस से कुछ दया दान की उम्मीद लिए एक घर से दूसरे घर जाता रहा। कुछेक को छोड़ किसी मोटे महाजन ने मदद की कोई पहल न की।जितना मिला वो ऊँट के मुँह में जीरा के समान। उसने अपने ठेले पर माँ के शव को लेटा दिया और चल पड़ा नदी की ओर। 

वहाँ पहुँचते ही डोम राजा ने कहा-” इनकी आत्मा को शरीर से मुक्ति दिलाने के लिए अग्नि के हवाले करना होगा। लकड़ियां लानी होगी,चिता सजाई जाएगी तब जाकर अग्नि के हवाले किया जाएगा। “

 पर कैसे..?

“लकड़ियों के लिए पैसे कहाँ हैं डोम राजा ! मैं तो अकेला ही इस ठेले पर लेकर आया हूँ जो मेरी रोटी-रोजी का साधन है।”

“फिर तो मुश्किल है ,मैं नहीं कर पाऊँगा मुफ्त में। जो सही लगे वो फिर तुम करो।”

राजाराम शून्य भरी आँखों से आसमान को एकबार निहारा। फिर उसने अपने कमर में खोंसी हुई दीयासलाई निकाली ,जो कभी-कभार बीड़ी की कश लगाने के लिए जलाने के काम आती। ठेला धूँ-धूँकर जलता रहा और संवेदनाएँ और सपने सब खाक होती रहे। संभवत: आत्मा मुक्त हो चुकी थी। 

— सपना चन्द्रा

सपना चन्द्रा

जन्मतिथि--13 मार्च योग्यता--पर्यटन मे स्नातक रुचि--पठन-पाठन,लेखन पता-श्यामपुर रोड,कहलगाँव भागलपुर, बिहार - 813203