लघुकथा

हारी बाजी

“आपने किया ही क्या हैं मेरे लिए? न किसी नेता-अभिनेता से, या प्रभावशाली जन सेवक से उठना-बैठना, गहरी पहचान हैं आपकी। “

“न कभी मन की, न कभी सैर सपाटे की इच्छा पूरी हुई। पढ़ो, खूब पढ़ो, कुछ बनो। आराम तो दूर, हमारा मनपसंद न कभी खाया, न ओढ़ा।”

बेटा आलोक की शिकायतें सुन रोहन और रेशमा निःशब्द थे।

सच ही तो कह रहा हैं आलोक,

“हमने किया ही क्या हैं?”

रेशमा की आंखों में आंसू देख रोहन की आंखें भी नम हो गयी। महंगाई के ज़माने में छोटी सी नौकरी में जितना हो सके, करने की कोशिश जरूर की थी। अपने लाड़ले के उचित लालन-पालन के लिए रेशमा अपनी नौकरी छोड़ घर से ही छोटा बड़ा अकाउंट का काम कर लेती थी। समय पर गरम-गरम खाना, पढ़ना, खेलकूद में प्रवीणता देखकर महँगा प्रशिक्षण करवाना।

अपने सपने, अपनी इच्छाएं, अरमान दोनों भूल गए थे। एक ही सपना, एक ही आशा, बेटे को चमकता सितारा बनाना हैं।

आज उसका खेल प्रतियोगिता के लिए चयन होना था।

आलोक को पूर्ण विश्वास था कि उसका चयन जरूर होगा। किस्मत का ताला बिना चापलूसी, प्रभाव नहीं खुल सकता। सफलता की सीढ़ियां चढ़ते आलोक को इस महत्वपूर्ण प्रतियोगिता से बेवजह बाहर कर दिया गया था।

चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप की पीड़ा से छटपटाता हुआ आलोक बड़बड़ा रहा था। खीजता, क्रोध से उबलता।

एक अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह, अपने अभिभावकों को विकल करता, हारी हुई बाजी का भान  करा रहा था।

आलोक को प्रेम से बाँहों में भरते हुए रेशमा ने ढाढस बंधाया।

“बेटा हारी बाजी को जीतना हमको आना चाहिए। कोशिश करो। इतने समर्थ, सक्षम बनो, कोई तुम्हें नजर अंदाज न कर सके।”

माता पिता ने अपने प्यार से आलोक के मन में आत्मविश्वास का दीप जलाकर, हौसले का बल भर दिया था।

“सही कह रहे हो आप। ऊँची उड़ान भरूंगा अपने पंखों के बल पर।”

“आप मेरे साथ हो तो कोई मुझे हताश नहीं कर सकता।”

“जीत का परचम लहराकर ही आऊँगा।”

“आपने किया ही क्या हैं मेरे लिए? न किसी नेता-अभिनेता से, या प्रभावशाली जन सेवक से उठना-बैठना, गहरी पहचान हैं आपकी। “

“न कभी मन की, न कभी सैर सपाटे की इच्छा पूरी हुई। पढ़ो, खूब पढ़ो, कुछ बनो। आराम तो दूर, हमारा मनपसंद न कभी खाया, न ओढ़ा।”

बेटा आलोक की शिकायतें सुन रोहन और रेशमा निःशब्द थे।

सच ही तो कह रहा हैं आलोक,

“हमने किया ही क्या हैं?”

रेशमा की आंखों में आंसू देख रोहन की आंखें भी नम हो गयी। महंगाई के ज़माने में छोटी सी नौकरी में जितना हो सके, करने की कोशिश जरूर की थी। अपने लाड़ले के उचित लालन-पालन के लिए रेशमा अपनी नौकरी छोड़ घर से ही छोटा बड़ा अकाउंट का काम कर लेती थी। समय पर गरम-गरम खाना, पढ़ना, खेलकूद में प्रवीणता देखकर महँगा प्रशिक्षण करवाना।

अपने सपने, अपनी इच्छाएं, अरमान दोनों भूल गए थे। एक ही सपना, एक ही आशा, बेटे को चमकता सितारा बनाना हैं।

आज उसका खेल प्रतियोगिता के लिए चयन होना था।

आलोक को पूर्ण विश्वास था कि उसका चयन जरूर होगा। किस्मत का ताला बिना चापलूसी, प्रभाव नहीं खुल सकता। सफलता की सीढ़ियां चढ़ते आलोक को इस महत्वपूर्ण प्रतियोगिता से बेवजह बाहर कर दिया गया था।

चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप की पीड़ा से छटपटाता हुआ आलोक बड़बड़ा रहा था। खीजता, क्रोध से उबलता।

एक अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह, अपने अभिभावकों को विकल करता, हारी हुई बाजी का भान  करा रहा था।

आलोक को प्रेम से बाँहों में भरते हुए रेशमा ने ढाढस बंधाया।

“बेटा हारी बाजी को जीतना हमको आना चाहिए। कोशिश करो। इतने समर्थ, सक्षम बनो, कोई तुम्हें नजर अंदाज न कर सके।”

माता पिता ने अपने प्यार से आलोक के मन में आत्मविश्वास का दीप जलाकर, हौसले का बल भर दिया था।

“सही कह रहे हो आप। ऊँची उड़ान भरूंगा अपने पंखों के बल पर।”

“आप मेरे साथ हो तो कोई मुझे हताश नहीं कर सकता।”

“जीत का परचम लहराकर ही आऊँगा।”

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८