सामाजिक

अबकी बरस भेजो भैया को बाबुल

जब एक सहेली ने अपनी बेटी के लिए सावन में मायके से भेजने वाले सिंधारे के लिए पूछा तो मेरी आंखें भर आईं।झटपट उसे सब सामान लिखवा कर मै अपने अतीत में खो गई।सबसे पहले बचपन आंखों के सामने आ गया। जबसे होश संभाला देखा सावन लगते ही मां पिताजी के कान खाने लगती थीं,” सावन आय गयो, मोय  छोरियों के लिए कपड़े लेने हैं। रूपिये दे देयो “। पिताजी या तो रुपिए दे देते या साथ बाजार लेकर जाते और हम दोनों बहनों के लिए हरे रंग के कपड़े खरीदे जाते।फिर मां बाजार से रिबन,मेंहदी आदि खरीदती थीं एक बुजुर्ग मुस्लिम मनिहारिन घर पर आती थीं सुंदर,रंग बिरंगी चूड़ियां और कड़े लेकर।मां खुद भी उनसे चूड़ी लेकर पहनती थीं और दीदी एवम मेरे लिए भी चूड़ी या कड़े पसंद करवा कर खरीदती थीं।दीदी को पता नहीं क्यों गिनती की तीन चूड़ी पहनने का शौक था तो कई तरह की तीन तीन चूड़ियां लेती थीं।

तीज से पहले ही घर में दो पटली वाला झूला पड़ता था।ननिहाल में घर 2000 वर्ग स्क्वायर गज में बनी कोठी थी जिसमे घर में दो बड़े वरांडे थे,एक बाहर पोर्टिको के बाद और दूसरा अंदर नानी और मामा जी के बेड रूम के मध्य।और घर के पिछवाड़े बड़ा सा बगीचा था तो एक झूला उस बगीचे में नीम के पेड़ पर पड़ता था जिसमे पूरे मुहल्ले की महिलाएं,बेटियां भी आकर हमारे साथ झूलती थीं और दूसरा झूला अंदर के बरामदे मे पड़ता था जिसमे घर की महिलाएं ही झूलती थीं।नानी जी की एक ही शर्त होती थी कि झूले पर बैठना है तो सावन के गीत गाना जरूरी है तो हमें ढेर सारे सावन के गीत याद थे। हम झूले पर ही खाना खाते,गीत गाते और अक्सर वहीं सो भी जाते थे क्योंकि उस पर एक छोटा सा खटोला डाला जाता था।वाकई बड़े ठाठ थे हमारे।

पिताजी भी आई ए एस ऑफिसर थे, फल उन्हें भी अंग्रेजों के ज़माने की कोठियां मिलती थी तो वहां भी झूले डाले जाते थे।तीज वाले दिन हमारी मौज़ रहती थी। नए कपड़े पहन कर,झूले पर सहेलियों के साथ झूलना, मां सुबह से ही उठकर खीर,पूड़ी,कचौड़ी,मूंग की दाल के मुंगौडे मालपुए बनाती थीं।हम बहनें,भाभियां,चाची,मौसी,मामी खूब झूले झूलते,गीत गाते,पकवान खाते दिन मनाते थे।शादी के बाद सासू मां भी  नए कपड़े,पकवान तो बनाती थीं लेकिन इतनी कड़क और मूडी स्वभाव थीं कि कब गुस्सा हो जाएं पता नहीं चलता था।हंसना,बोलना कम हो गया,गीत गाना बंद हो गया।

तीज से रक्षाबंधन तक हम बेटियों/बहनों के त्यौहार और व्यस्तता बनी रहती थी।ब्याही गई बेटियां/बहनें इस समय मायके आती थीं और भाई को राखी बांधने के बाद ही ससुराल वापिस जाती थीं।बड़े मस्ती भरे दिन और रात होते थे।पुरानी सखियों/बहनों/ बुआओं से सुख दुख और सासुरे की बातें करते थे,हल्के हो लेते थे और हमें फिर अगले सावन तक ऊर्जावान होकर ससुराल में रहते थे।

अब सब खत्म हो गया है।अब जब से महिलाएं नौकरी ,करने लगी हैं तो उन्हें समय ही नहीं मिलता।परिवार छोटे और पैसे की अधिकता के कारण मॉल से या ऑनलाइन शॉपिंग से घर बैठे कभी भी कितने कपड़े मंगवा सकती हैं जबकि हमें सिर्फ त्यौहार पर ही नसीब होते थे क्योंकि कमाने वाला एक और भाई बहन 5 या अधिक होते थे।घर के मुखिया पर ज़िम्मेदारी ज्यादा थीं।पूर्वी उत्तर प्रदेश में भादों की तीज फिर भी कठोर व्रत के कारण अभी तक बरकरार है लेकिन हमारी तीज फीकी पड़ गई है।घर में नेह के साथ बनाए पकवानों की जगह अब फास्ट फूड ने ले ली जो सेहत के लिए हानिकारक हैं और प्रेम से पकाए भी नहीं।

जमाना इतना बदल गया है कि रक्षा बंधन जैसा पवित्र त्यौहार जो भाई बहन के परस्पर प्रेम और त्याग का प्रतीक था और सिर्फ हमारे देश में मनाया जाता रहा है,उसका व्यवसायीकरण सबसे ज्यादा हुआ है? पहले रक्षासूत्र में भावना देखी जाती थी चाहें वह सिर्फ मौली या रंगीन धागे का बना ही क्यों ना हो,आज की चकाचौंध में चांदी/सोने की राखियों से अपनी हैसियत का प्रदर्शन मात्र बन गए हैं।बहने भी भाई से प्रेम एवम रक्षा के वायदे के स्थान पर बड़ी रकम या जेवरात की अपेक्षा करने लगी हैं।अब हर रिश्ते में प्रेम की जगह अपेक्षा ने ले ली है और पूरी ना होने पर रिश्ते में दरार आ रही हैं।कहीं कहीं तो रिश्ते खत्म हो रहे हैं और कहीं इसमें दुश्मनी जैसा बुरा भाव भी आ गया है।जो किसी के लिए भी सही नहीं है।

मायका भी बस माता पिता के रहने तक सिमट कर रह गया है।

मेरी इल्तिज़ा है नई पीढ़ी से कि रक्षाबंधन पर भले ही बहन/भाई के पास जाने का समय ना निकाल सकें,कोई बात नहीं,लेकिन इसमें निहित प्रेम और भावना को देखें,महसूस करें ना कि इसे पैसे एवं महंगे उपहारों से तौले।प्रेम का कोई मोल नहीं होता।

— पूर्णिमा शर्मा

पूर्णिमा शर्मा

नाम--पूर्णिमा शर्मा पिता का नाम--श्री राजीव लोचन शर्मा माता का नाम-- श्रीमती राजकुमारी शर्मा शिक्षा--एम ए (हिंदी ),एम एड जन्म--3 अक्टूबर 1952 पता- बी-150,जिगर कॉलोनी,मुरादाबाद (यू पी ) मेल आई डी-- Jun 12 कविता और कहानी लिखने का शौक बचपन से रहा ! कोलेज मैगजीन में प्रकाशित होने के अलावा एक साझा लघुकथा संग्रह अभी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है ,"मुट्ठी भर अक्षर " नाम से !