कविता

ऐ ऊम्र

ऐ ऊम्र, तू बड़ी बेवफा है
तू स्थिर क्यों नहीं रहती?
तेरी चंचलता मुझे रास नहीं आती,
हमेशा आगे ही आगे तू बढती रहती।
अभी तो बचपन को जिया नहीं ठीक से
अभी तो लडकपन की मस्ती किया नहीं ठीक से
और तूने मुझे ठेल दिया जवानी की मस्ती में
पर वो भी तूने छिन लिया जल्द
बहुत सस्ती में।
पता नहीं मेरे ऊम्र के ठहराव से तेरी क्या है दुश्मनी,
जो हर वक़्त मेरे ऊम्र से तू करता है मनमानी।
न मेरा बचपन और न ही मेरी जवानी तूझे रास आई,
फिर मुझे बुढ़ापे की तन्हाई में तूने डुबाई।
तेरी बेवफाई की अब ये आलम है
हर पल मुझे तू हंस हंस कर डराती है
और कहती रहती है देखा मैं ऊम्र हूँ
मेरी दोस्ती समय से है अब मैं किसी भी पल
तूझे जीवन से मुक्ति दिला सकती हूँ।
पर अब तेरी बेवफाई से मुझे नहीं लगता है डर,
अब तू मेरे ऊम्र के साथ ठहर या न ठहर,
जो करना है तूझे वो तू कर।
पर ऐ ऊम्र, तू है बड़ी बेवफा,
तूने नहीं की मेरे साथ वफ़ा।
— मृदुल शरण