सामाजिक

आओ चंद्रोत्सव मनाएँ

आयु के पाँच वर्ष तक चंदा मेरा मामा था। थोड़ी अक्ल आयी तो उसे शिव जी के माथे पर देखकर भक्ति उमड़ती रही। माता जी के बाद पत्नी करवा चौथ की पूजा करती थी तो उन्हें बताना पड़ता था कि अभी चंद्रोदय हुआ या नहीं। जब जवानी में ज्यादा अकल आ गयी तो ‘मामा जी’ मेहबूबा बन गये। नज़रें गड़ा-गड़ाकर लड़कियों की सूरत में तलाशता रहा पर कभी नहीं दिखे, बल्कि जूते पड़ने की नौबत ज़रूर आयी। और अब आज उसका मुख चूमने का मौका मिला भी तो उम्र का छठे दशक अंतिम पड़ाव पर है। कोई बात नहीं मन में एक सुखद भाव जरूर उमड़ रहा है कि मेरा पोता चाँद पर पिकनिक मनाने एक दिन जायेगा फिर सेल्फी खींचकर आयेगा।और उसका पोता प्लॉट कटवाकर वहाँ भारत-नगर में रहेगा।
कई लोग ईद के चाँद हो जाते हैं। जिसे सभ्य समाज अच्छा नहीं मानता। इसमें कोई बुरी बात नहीं। ये छिपने- छिपाने का रिवाज़ भी हमने चाँद से ही सीखा है। कभी ईद का हो जाता है तो कभी बादलों का। नेतागण जनता के वोट बटोरकर ईद का चाँद हो जाते हैं और उधार लेनेवाला देनदार को अपनी शक्ल बादलों में छिपे चाँद की तरह दिखाता है। बदनाम होता है बेचारा चाँद, कि फलाँ जी ईद के चाँद हो गये। जबकि वह तो महीने में उनतीस दिन चमकता रहता है कभी कम तो कभी ज्यादा। चाँद और मेरे वेतन में एक समानता है। दोनों महीने में एक बार ही पूरे दिखाई देते हैं। बाकी समय लगातार घटते रहते हैं। चंदा तो फिर भी एक पखवाड़े में घटते-घटते लापता होता है पर ये कमबख्त तनख्वाह अगले दिन ही अमावस गति को प्राप्त हो जाती है। महँगाई का राहु उसे ग्रसने आँखें गड़ाए जो बैठा रहता है।
अपने विद्यार्थी जीवन में पढ़ा था कि चंद्रमा का जन्म पृथ्वी की कोख से ही हुआ है। इस हिसाब से वह मेरा भाई है। अरे! धरती मेरी भी तो माँ है कि नहीं। फिर आप कहोगे, इस हिसाब से बहन भी तो है। नहीं साहब! बहन नहीं। इससे ज़रा मेरी नैतिकता खतरे में पड़ सकती है। उसे “सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं” तक ही छात्र-प्रतिज्ञा में रहने दीजिए। हमारे ताऊ रूस-अमेरिका के झाँसे में पड़े रहे वरना हमारे दद्दा तो युगों पहले सूर्य को सेव समझकर खा गये थे – युग सहस्र योजन पर भानु। लील्यौ ताहि मधुर फल जानु।। सुना नहीं आपने? आज मेरे भाइयों ने आधुनिक विज्ञान के माध्यम से चाँद का चुंबन कर लिया तो सीना छप्पन नहीं एक सौ छप्पन इंच का हो रहा है । ये समय श्रेय लेने का नहीं श्रेय देने का है हमारे वैज्ञानिकों के समर्पण, मेहनत और त्याग को। ये समय आलोचना का नहीं गौरव का है। आइए इस पल में सारे राजनैतिक विद्वेष भूल कर झूमें। और अपने भारतीय होने पर दिल भांगड़ा-गरबा-भरतनाट्यम- कथकली सब करें का है और गाएँ – ‘ये चंदा रूस का ना ये जापान का, ना ये अमरीकन प्यारे, ये तो है हिन्दुस्तान का।’ आज का ये पल आनंदोत्सव मनाने का है। आओ चंद्रोत्सव मनाएँ।

— शरद सुनेरी