धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आत्मचिंतन की जीवन में सार्थकता

हम सभी मानव हैं और आत्मचिंतन हमारे जीवन का अहम हिस्सा है।यह अलग बात है कि हम अपनी सुविधा अनुसार ही आत्म- चिंतन करने के बारे में सोचते या करते हैं। जीवन के हर हिस्से में समय समय पर आत्मचिंतन करना हमारे हित में है। जिसकी उपेक्षा हमें भारी पड़ सकती है और पड़ती भी है। जीवन के क्षेत्र में भी हम सबको आत्ममंथन करना होगा कि आज सोशल मीडिया के बढ़ते दायरे के साथ ही हर क्षेत्र में विसंगतियों, विडंबनाओं, भ्रांतियों की भी बाढ़ आ गई है, इसमें कितनी सार्थकता और सारगर्भिता है, इस पर भी हमें मनन, चिंतन करना चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समय के साथ जीवन केहर हिस्से में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा है, सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेट फार्मों से हमारे जीवन में सकारात्मक बदलाव भी दिख रहा है। तकनीक का जीवन में दखल बढ़ रहा है,मगर यह कहने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि आधुनिक बनने की होड़ में हम आप अपने सामाजिक, पारिवारिक, पारंपरिक, धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं। रीति रिवाज, परंपराओं का तेजी से क्षरण हो रहा है,या महज औपचारिकता बनता रहा जाता है, हमारी शिक्षा व्यवस्था भी असंतुलन पैदा करने में पीछे नहीं है। कट्टरवाद की गहरी होती जड़ें हमें ही पीछे ढकेल रही है। मानवीय मूल्यों का दम घुट रहा है, तुष्टिकरण के नाम पर हम आपस में न केवल बांटे जा रहे है, बल्कि अपने ही संसाधनों और संपत्तियों का नुक़सान करने के साथ सरकारी/सार्वजनिक संपत्तियों को नुक्सान पहुंचा कर हम क्या हासिल कर रहे हैं। इसी तरह साहित्यिक सामाजिक क्षेत्रों के वर्तमान मूल्यों को भी हम बहुत संतोषजनक नहीं कह सकते, और इन सबका दुष्प्रभाव भी हमें अपने घर परिवार, वर्ग, समाज में रोज ही देखने को मिल ही जाता है। इसके लिए हम किसी एक व्यक्ति, वर्ग, समाज को ही दोषी नहीं माना सकते। वास्तविकता यह है कि हम खुद सबसे ज्यादा दोषी हैं। हम अपने और दूसरों के लिए अलग अलग मापदंड निर्धारित करते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ ले रहे हैं। कभी हमने विचार किया है,या शांति से एक मिनट बैठकर आत्मचिंतन करने का कष्ट उठाते हैं कि परिवार हो या समाज एक अकेला नहीं हो सकता है। औरों को दोषी मान लेने भर से हम दूध के धुले नहीं हो जाते। जीवन के समग्र विकास और सार्थकता के लिए हमें हर कदम पर आत्मचिंतन करते रहना चाहिए, तभी हम, आप हो या हमारा परिवार समाज राष्ट्र के हितार्थ अपनी जिम्मेदारी निभाने को लेकर संतोष महसूस कर सकते हैं। क्षणिक या महज खानापूर्ति के लिए आत्म चिंतन आत्मघाती होगा। वास्तव में आत्मचिंतन को हमें अपने जीवन का अंग बनाना होगा तभी जीवन की सार्थकता संभव है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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