सामाजिक

शहर या गांव: कहां रहना बेहतर

बदलते परिवेश और बढ़ती सुख सुविधाओं के साथ यह कहना तो कठिन लगता है कि शहर या गांव में कहां रहना बेहतर है। क्योंकि आज गांवों में शहर जैसी सुविधाओं का विस्तार होता जा रहा है, तो शहरी परिवेश का असर गांवों में घुसपैठ करने में सफलता के साथ जड़े जमाता जा रहा है।    मेरा विचार है कि सैद्धांतिक रूप से गांवो में रहना थोड़ा कठिन है, तो व्यवहारिक रूप में शहरों में रहना कठिन है।    आज सुविधाओं की दृष्टि से गांव भी तेजी से शहरों की सुविधाएं अपनाते जा रहे और उसके अनुरूप खुद को ढाल भी रहे हैं। पर हम स्वयंभू शहरवाले गांव का संस्कृति, सभ्यता, सहयोग, अपनापन भूलते जा रहे हैं, हम अपने आपको मशीन में बदल कर खुश भले हो रहे हों, पर संतुष्ट बिल्कुल नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि हम अपने लिए भी समय निकाल पाने को तरसते जा रहे हैं, तब हम अपने परिवार, शुभचिंतकों, पड़ोसियों के लिए समय भला कैसे दे सकते हैं? चार पैसे क्या ज्यादा कमाने लगे हमारी संवेदनाएं मरती जा रही हैं, गांव में रहने वाले अपने ही परिवार को हम उपेक्षित और हेय समझने लगे हैं और तो और हम अपने मां बाप को  भी शहरी परिवेश और आधुनिकता की आड़ में अनपढ़ गंवार असभ्य और एडजस्ट नहीं कर पायेंगे का बहाना बना कर दूर करते जा रहे हैं। दो चार दिन के लिए परिवार गांव से आ जाता है तो हमारी बीपी बढ़ने लगती है, बजट बिगड़ने लगता है। रिश्तेदारों से इसी डर से हम कन्नी काटने लगे हैं। किसी कार्यक्रम में कार्यक्रम स्थल से ही लोगों का आना जाना हो जाता है, करीबी रिश्तेदारों का भी यही आलम है। क्योंकि हम भी ऐसा ही चाहते ही नहीं करते भी हैं।       जबकि गांवो में विकास की रफ्तार के बाद भी आपसी सामंजस्य, संवेदनाएं, सुख दुख में खड़े होने की भावना और परिवार सगे संबंधियों से लगाव शहरी प्राणियों से आज भी अपेक्षाकृत बहुत अधिक है, गांवो के लोग शहर वालों के साथ बड़ी आसानी से न केवल एडजस्ट हो जातें हैं बल्कि आत्मीयता भी दिखती है। यह अलग बात है कि गांवों के लोग आवरण नहीं डालते। वे वास्तविक रूप में सबके सामने रखते हैं।      अंत में मेरा विचार है कि दोनों जगह रहने का औचित्य अपने अपने विचारों, हालातों और सोच पर निर्भर करता है। गांव हो या शहर, कुछ सहूलियतें सुविधाएं , कठिनाइयां दोनों जगह हैं। यह निर्भर करता है कि हमारा दृष्टिकोण, सोच और सहनशीलता पर निर्भर है।   गांव हो शहर दोनों जगह रहना जितना सरल है तो उतना ही कठिन भी है। जिसमें जो जैसा सामंजस्य बैठा सकता है, उसके लिए वही सरल है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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