सामाजिक

नवयुग निर्माण में हमारे सपने

हमारे सपने, हमारे विचार हमारी सोच और नव निर्माण। यही है प्रगति का सोपान। युग कहीं से बन कर नहीं आता है,युग का निर्माण उस समय के लोगों की सोच और उसके क्रियान्वयन पर निर्भर है। आदिमयुग से होते हुए आज हम २१ वीं सदी में आ पहुंचे हैं। समय चक्र सतत गतिशील रहता है वह कभी न रुकेगा है न थकेगा, चलता ही रहेगा, अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम समय के साथ चल पा रहे हैं या नहीं। महीयसी महादेवी वर्मा ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, “भावना, ज्ञान और कर्म जब एक समन्वय पर मिलते हैं तभी युग-प्रवर्तक साहित्यकार प्राप्त होता है।” बिल्कुल सही है। यदि हमारे भाव , ज्ञान और कर्म एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तभी युग-प्रवर्तक साहित्य का सृजन हो सकता है। ऐसा ही साहित्य नव-युग निर्माण में सहायक भी हो सकता है। आज से पीछे की जीवन यात्रा पर एक नजर दौड़ाएं,तो हम पाते हैं कि एक समय वो था जब मानव जौली जीवन जीता था, उसे जो मिला का लिया, जहां जैसे हो गया, बेवस्त्र, स्वच्छंद विचरण करता था, शर्मोहया का नामोनिशान तक नहीं था, पर कुसंस्कार अपवाद स्वरूप ही थे, समय के साथ विकास की ओर अग्रसर हुआ और झुग्गी झोपड़ी, कच्चे मकानों, से पक्के मकानों, रिहायशी फ्लैट, आलीशान बिल्डिगों तक आ पहुंचा। यातायात के साधनों का विकास जानवरों से शुरू होकर बैलगाड़ी, इक्का तांगा रिक्शा, साइकिल, मोटरसाइकिल, कार बस, लग्जरी वाहन, पानी के जहाज,हवाई जहाज , विमान जेट राकेट तक आ पहुंचे। मालढुलाई शिक्षा कला, साहित्य संस्कृति , विज्ञान, संचार और जीवन के हर क्षेत्र में हमारी सतत यात्रा जारी है, जिसकी उपयोगिता हम सबके जीवन में सदैव जुड़ती जी रही है। ये हमारे सपनों का असर है। हम आगे बढ़ रहे हैं और अब भी नये सपने देखते हुए उसको मूर्तरूप देने का प्रयास कर रहे हैं।सफल असफल होना नियति है। यदि हमें सपनों को हकीकत में बदलना है तो सफलता और असफलता दोनों को ही स्वीकार करना ही पड़ता है। कहा भी गया है कि असफलता में ही सफलता की कुंजी छिपी होती है। असफलता और सफलता का ताजा उदाहरण चंद्रयान 2 की असफलता और चंद्रयान 3 की सफलता से समझा जा सकता है, जिसका लाभ यह हुआ कि हमारे देश ने आदित्य एल 1 को भी सूर्य के अध्ययन के लिए सफलता पूर्वक भेज दिया है। संचार माध्यमों का ही असर है हम दूर दूर होकर भी कितना पास है। त्वरित संवाद, संदेश और अन्य आवश्यक प्रपत्रों, धनराशि आदि का सुगमता से आदान प्रदान कर लेते हैं। बहुत छोटा सा उदाहरण देता हूं कि दुर्घटनाओं के डर से सड़क पर चलना नहीं छोड़ सकते हैं,तब असफलता के डर से हम कुछ नया करने को कैसे छोड़ सकते हैं? सूखा, बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं के डर से हम खेती करना छोड़ते हैं क्या?नहीं न। रोज तमाम तरह की दुर्घटनाओं के बाद भी कहीं किसी चीज के उपयोग में कमी आती है, कतई नहीं। क्यों? क्योंकि ये हमारी जरूरत बन गई है। और अपनी जरूरत को हम छोड़ कर जीने की कल्पना नहीं कर सकते। मौत तो घरों मकानों के गिरने से भी होती है,या प्राकृतिक आपदाओं में भी जनधन की हानि होती तो भी हम घरों में रहना तो नहीं छोड़ देते हैं और जायेंगे भी तो कहां? कुल मिलाकर आगे बढ़ना ही है और आगे बढ़ने के लिए हमें सपने देखने ही होंगे, बिना सपनों के कोई हकीकत नहीं है। हमारे वैज्ञानिक शोधकर्ता या किसी यंत्र, सामग्री,दवाई, टीका या अन्य नवनिर्माण में बिना सपनों के आगे नहीं बढ़ सकते । ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि नवयुग के निर्माण में हमारे सपनों की बड़ी नहीं मुख्य भूमिका है। किसी भी क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन के लिए हमें अपने उच्चतम आदर्शों के सपनों को हकीकत में बदलने का उदाहरण श्री पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। अन्यथा नवयुग के निर्माण में हमारे सपनों की भूमिका नगण्य साबित होगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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