सामाजिक

आख़िर कब तक

कुछ लोगों को लगेगा कि महिलाएं आज कहां से कहां पहुंच गई ऐसे में इस विषय को उठाना निरर्थक है। मानती हूं परिस्थितियां बदलीं भी है‌ लेकिन, कुछ एक घरानों में, कुछ एक क्षेत्रों में, कुछ एक दिमागों में आज भी अठारहवीं सदी वाली विचारधारा पनप रही है। आगे पढ़िए पता चल जाएगा।

महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, इस्मत चुग़ताई, परवीन शाकिर, वर्जिनिया वुल्फ़, सिमोन द बउआर और माया एंजेलो जैसी सारी विरांगनाओं की आत्माएं आज अफ़सोस कर रही होंगी कि महिलाओं को न्याय दिलाने की ख़ातिर कलमतोड़ मेहनत व्यर्थ गई। जी, हां! इन सारी लेखिकाओं को विरांगना ही कहूंगी क्योंकि उन्होंने उस ज़माने में स्त्री विमर्श लिखने की हिम्मत की थी, जब महिलाओं को घूंघट में रहकर चार दीवारी के पिंजरे में कैद पक्षियों की भांति बंदिशें नसीब थी। आज के दौर में महिलाओं की स्थिति पहले से भी गई गुज़री प्रतित हो रही है। कुछ मर्दों की विचारधारा और मानसिकता एक पायदान उपर उठने की बजाय वहशीपन की खाई में गिरती जा रही है। पिछले साल स्त्री लेखन की सबसे बड़ी घटना गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है जिससे देश का नाम गौरवान्वित हुआ है। क्या है उस उपन्यास का विषय? नखशिख जलती एक विधवा के मन की पीड़ा का ज़लज़ल।

स्त्रियों के प्रति हमारे दोगले समाज की निम्न स्तरीय सोच को सरेआम उजागर करने का समय आ गया है। हर बात में, हर क्षेत्र में बिना कोई ग़लती के सज़ा स्त्री को ही क्यूं दी जाती है? क्यूं महिलाओं के साथ सुलभ शौचालय जैसा व्यवहार होता है? क्यूं महिलाएं सार्वजनिक समझी जाती है? कोई भी आकर काम करके निकल जाता है। झगड़ा घर में हो, गली मोहल्ले में हो, दो कोम के बीच हो या दो देशों के बीच, बलि का बकरा हंमेशा स्त्री ही क्यूं बनती है? कहां है समानता? स्त्री को आज भी भेड़ बकरी और भोग की चीज़ ही समझी जाती है। सिर्फ़ हमारे ही देश के मर्दों की ऐसी मानसिकता नहीं, दुनिया के हर मर्द यही समझते हैं कि स्त्री तुच्छ है उसका इस्तेमाल कहीं भी करो, कैसे भी करो ये सहने के लिए ही पैदा हुई है। ये कोई नई बात नहीं है! सदियों से चली आ रही परंपरा आज इक्कीसवीं सदी में भी दोहराई जा रही है। क्या इस मसले का कोई छोर नहीं? 

सोचिए क्यूं आज भी आधुनिकता के युग में साहित्य का हर तीसरा पन्ना स्त्री विमर्श से सुशोभित है? खासकर महिला लेखिकाओं का सबसे पसंदीदा विषय स्त्री विमर्श ही रहता है। इसका मतलब आज भी स्त्रियों की स्थिति में ज़्यादा बदलाव नहीं आया। आज की महिलाओं का ये आक्रोश ज्वालामुखी की तरह यूँ ही नहीं उबल रहा, इसके पीछे लंबी यातनाओं का इतिहास आक्रंद कर रहा है जो

जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु यानि कि डीएनए‌ द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में नई मानसिकता के साथ बोया जाता है। कौरवों को अपमान पांडवों का करना था, बैर पांडवों से था और चीरहरण द्रोपदी का किया गया?  रावण को मृत्यु का डर राम से था, तो सीता जी का हरण क्यों हुआ? यही सिलसिला आज भी दोहराया जा रहा है,‌ हमास के आतंकवादी संगठन ने इज़राईल पर हमला किया दोनों के बिच धमासान में कितनी महिलाओं के साथ कुकर्म किया गया। 

हमास के आतंकियों ने जिस तरह वहाँ की महिलाओं को अगवा किया, बलात्कार करके उनकी लाशों को निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाया, लडकियों के बाल पकडकर घसीटा ये सब क्या था ? और क्यूं? इससे पहले भी रूसी सैनिकों ने यूक्रेन पर हमला करके वहाँ की महिलाओं के साथ निर्ममता से रेप करके अपने पुरुषत्व का प्रमाण दिया।

मणिपुर की घटना भूलाए नहीं भूलती, चार मई को मणिपुर में दो आदिवासी महिलाओं को निर्वस्त्र किया गया, उन्हें नग्न घुमाया गया, पीटा गया और फिर दंगाइयों की भीड़ ने घेरकर लोगों के सामने उनके साथ दुष्कर्म किया। घटना चाहे रामायण की हो, महाभारत की हो, मणिपुर की हो, यूक्रेन या फिर इजराइल की, लेकिन अपमानित हंमेशा स्त्री ही क्यों होती है ? उसके कुछ ही दिनों बाद राजस्थान में एक लड़की को निर्वस्त्र करके पूरे गांव में घुमाया। देश में हर रोज़ न जानें कितने बलात्कार होते हैं, कितनी मासूम घर के अंदर और बाहर के मर्दों के हाथों प्रताड़ित होती रहती है what the hell is this? विवाद, झगड़ा या युद्ध पुरुषों के बीच में होता है और गालियां उनके घर की मां बहनों को दी जाती है क्यूं भै? मर्द हो झगड़ा मर्द से है तो गाली भी एक दूसरे को दीजिए न। उन महिलाओं की मानसिकता का ज़रा अंदाज़ तो लगाईये रूह कांप उठेगी। 

ये कौन सी मानसिकता है कि अगर हमारा किसी और के साथ झगड़ा है, गाली देकर अपमानित करना है तो उस गाली में उल्लेख सामने वाले मर्द के नाम का नहीं, मां बहन वाली गाली चिपका कर उसके घर की महिला का होना जरूरी है। यदि एक देश दूसरे देश के विरुद्ध युद्ध करता है तो भी अपमानित महिला ही होती है, निर्वस्त्र महिलाएं होती है। एक समुदाय अगर दूसरे समुदाय से मतभेद रखता है, तो क्यों दूसरे समुदाय की स्त्री का ही निर्वस्त्र करके सड़कों पर सरेआम जुलूस निकाला जाता है? उस समुदाय के पुरुषों का क्यों नहीं? ऐसी नीच और महिलाओं को ज़लील करने वाली हरकत करने वाले खुद को मर्द समझने वाले हकीकत में वो अपना मानसिक तौर पर नपुंसक होने का परिचय दे रहे होते है। हकीकत में ऐसे पुरुषों का वो हश्र करना चाहिए जो स्त्रियों के साथ हो रहा है। वैसे तो ऐसी मानसिकता वाले पुरुष इससे भी ज्यादा नफरत और घृणा और सज़ा के हक़दार है। इसलिए हर स्त्री से मेरा निवेदन है है कि जब भी महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं अपनी आंखों के सामने घटती दिखाई दें तब एकजुट होकर  पुरुषों को ऎसा सबक सिखाईये कि दूसरी बार किसी महिला को प्रताड़ित करने से पहले सौ बार सोचे। सुप्रसिद्ध अंग्रेजी लेखिका रुक्मिणी भाया नायर ने बीज व्याख्यान देते हुए कहा कि महिलाओं को अब ‘सहना’ नहीं बल्कि ‘कहना’ है। इस कथन को समझना होगा महिलाओं ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी हमें अबला और कमज़ोर न समझे।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर