कविता

जीवन धड़क रहा है!

शाम की यह बेला कुछ सुर्ख हो चली

दरख्तों की शाखाओं में कुछ सरसराहट सी हुई

परिंदों की कतारों ने आसमां को घेरा है

दूर कहीं उनका बसेरा है..!

दिवाकर भी कुछ थका-थका सा

अपने घर लौटने को आतुर-सा…..!

निशा अपनी बाहें फैलाए

दिन को अपने आगोश में समेटे जा रही 

चांद की चांदनी कुछ बिखर-सी गई हैं 

सितारों की भी महफ़िल सजी हुई है..!

दिन जो बहुत पहचानी लगती है

रात अपरिचित और अनजानी -सी

 किसी अनबुझ पहेली -सी  है..!

रात की खामोशी में

झींगुरों का स्वर मुखर हो चला है

जुगनू की कोशिश

इस रात के अंधेरे को दूर करने की जारी है।

जैसे जैसे रात  गहरी होती है 

वैसे -वैसे ज्यादा खामोश होती है 

इस खामोशी में बस सांसों की आहट है

जिसमें सिर्फ जीवन धड़क रहा है…!

— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P