दोहे – तू रुपया को दास
देख धीरज का धीरज, धीरज रह्यो खोय।
खोया धीरज सभी ने, धीरज धीरज रोय।।
संचित रुपया पाप का, खूब किए प्रयास।
जग धीरज कैसे कहे, तू रुपया को दास।।
क्या सोच इकट्ठा किया, क्या ले जाता साथ।
थैले अलमारी भरी, फिर भी खाली हाथ ।।
यथा नाम विपरीत गुण, हुए नेताजी भ्रष्ट।
रुपयों से जीवन लिखा, बांच रहे सब पृष्ठ।।
कहां से कहां ले गयी, ये रुपयों की होड़।
इच्छा ना पूरी हुई, बदल गये सब जोड़।।
रह रह रुपये मिल रहे, बीत गये दिन चार।
मशीन गिनते थक गई, पा रुपयों की धार।।
— व्यग्र पाण्डे