कविता

मेरी तुम्हारी कहानी

मेरी तुम्हारी है एक ही कहानी।
बेजुबान परिंदे, बंद पिंजरे में।
गुटुर- गूं ,गुटुर -गूं कर अपनी पीड़ा जताते हो ।

मैं , जो तोड़ नहीं सकती
बंदिशों की दीवारें,
सहानुभूति रखती हूंँ, तुमसे

हाँ, इसलिए ही, एक दिन
पिंजरे को खोलकर
मैंने तुम्हें उड़ाया था।

तुम्हें उड़ते देखा, खुशी छा गई थी ,
मेरे दर्द भरे दिल में।
हाथ उठा, देखती रही तुम्हें।
दूर -दूर जाते, बहुत ऊँचा उड़ते

पर, पल भर बाद, मुझे भय ने सताया था।
तुम्हें ना पाकर, मेरा -तुम्हारा मालिक देगा मुझे कठोर सजा ।

न जाने कौन सी, यातना झेलनी होगी?
संध्या के धुंधलके के साथ
सर उठाने लगा था भय का साँप ।

आता ही होगा ,कबूतरों का और मेरा मालिक
तोड़कर रख देगा वो मेरी हड्डियाँ।
सामने था, खुला हुआ पिंजरा ।
बिखरे बाजरे के दाने।

पर यह क्या ? गुटुर- गूँ , गुटुर -गूँ
कर लगे वो शोर मचाने।
लौट आए थे पाँचों कबूतर
मुझे डंडों की मार खाने से बचाने।

समझ गए थे वो भय मेरा या शायद उनकी भी फितरत यही थी
हमारी तुम्हारी कहानी वही थी ।।

— बृजबाला दौलतानी