कविता

सन्यासिन

उड़ा रही हूंँ,
मन से अपने
पाँचों कपोत।
बस चुके हैं जो
तन गेह में ।
फड़फड़ाते हैं रोज।।
कामरूप कमनीय कपोत ,
क्रोध, मोह, मद और लोभ।

उड़ जाओ,
जाओ दूर चले जाओ ,
करते हो गंदगी,
जाओ बन में बस जाओ।
उन्हें उड़ते देख,
रीता सा महसूस हो रहा है।
हल्का हुआ तन मन ,
उड़ने चला है ।
प्रभु के चरण से ,
वह जुड़ने चला है ।
गा रही हूंँ भजन मैं ,
हो रही हूंँ मगन मैं।।

बहिर्मन अंतः मन से
मिलने चला है ।
जीवन की संध्या,
निकट लग रही है ।
घड़ी काल की,
सन्निकट लग रही है ।
मैं भी छोड़ पिंजरा,
चलूँ प्रभु से मिलने ।
एक ही तमन्ना बची है,
अब इस दिल में ।

पर शाम देखो,
जो गहराने लगी है ।
बच्चों की यादें,
सताने लगी हैं ।
लौट आया है मोह,
गुटुर- गूँ, गुटुर – गूँ करते।
जो खोली तिजोरी,
तो लोभ भी उमड़ा ।
आसमान से उतर ,
देखो छज्जे पर बैठा ।
अभी भोगने को,
बहुत संपदा पड़ी है
मद भी आ गया है,
यह कैसी घड़ी है ?
क्रोध आ रहा है ,
अपने ही ऊपर ।
फड़फड़ा रहा है
कहाँ तेरा ईश्वर ?
कहाँ तेरी भक्ति,
कहाँ तेरी पूजा ?
रात गहरा रही है ,
अब है काम सूझा,
उतर गेह में मुझको
उकसा रहा है ।
अरे ओ सन्यासिन,
तुझे क्या हुआ है ?

— बृजबाला दौलतानी