कविता

कैसे जी पाओगे अंतरात्मा को मार कर

यह लोकतंत्र नहीं भेड़तंत्र बन गया है

जिधर दिखा पैसा बस उधर चल पड़ा है

जब जी चाहे पाला बदल कर मुस्कुराते हैं

वोट देने वाला चुपचाप किनारे खड़ा है

कोई अंतरात्मा की दुहाई है देता

कोई सिद्धान्तों की बात है करता

उम्र भर जिस थाली में खाया मनपसंद

ज़मीर बेचकर उसी में छेद है करता

सत्ता जब मिलती है अहंकार तो आ है जाता

दूर के लगते अपने अपना पराया नज़र है आता

अपनों की भीड़ में कोई काबिल नहीं लगता

बाहर के लोगों को अपने पास है बुलाता

अपनों का जब करोगे निरादर और तिरस्कार

बदल जाये जब सत्ताधारी का व्यवहार

तब कोई कुछ तो करेगा अपना अहम बचाने को

संयम कितना रखे कोई बाहर आ जाता है मन का गुब्बार

बोली लगी होगी छुप छुप कर सबके ईमान की

अंतरात्मा तो मर गई होगी उनकी यह जान कर

किसने कितने में बेचा होगा ईमान यह प्रश्न नहीं

प्रश्न है कि कैसे जी पाओगे अपनी अंतरात्मा को मार कर

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र