गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

निरंकुश जबसे नफरत हो गई है
शराफ़त तब से रुख़सत हो गई है
छुआ था हाथ उसने बस ज़रा सा
मुझे तब से हरारत हो गई है
अभी दुर्योधनों का दौर है यह
ये दुनिया महाभारत हो गई है
मिली जबसे ज़रा शोहरत तो देखो
जुबां में उसकी हरक़त हो गई है
अदावत ही रही है जिसको मुझसे
मुझे उससे मुहब्बत हो गई है
बिछड़ कर उससे मैंने आज जाना
मेरी पीड़ा भी परबत हो गई है
बहुत सालों से गिरवी है ये इज्जत
मेरी हालत भी तिब्बत हो गई है
मेरे भीतर भी सद्गुण आ गए हैं
कि तुमसे जबसे संगत हो गई है
— डॉ.ओम निश्चल