गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मर्यादा हूँ , मान की तरह , रहती हूं।
पूजन ,अर्चन,ध्यान की तरह रहती हूँ।

झील -सरीखी आँखें सूख गई हैं ,अब!
फिर भी मैं अरमान की तरह ,रहती हूँ।

मुझे ख़बर है,शायद तुमको ,ख़बर नहीं
मैं तुम में , पहचान की तरह ,रहती हूँ।

देवदास को भूल चुकी ,मन की पारो!
ठकुराइन हूँ,शान की तरह ,रहती हूँ।

बाहर से दिखती हूँ,भोली-भाली पर,
भीतर अनुसंधान की तरह रहती हूँ।

सच बोलूं क्या!जब से इस घर आई हूँ
जल में सूखे धान की तरह ,रहती हूँ।

साँसें भी ले लेती हूँ छिद्रों में से
गठरी में सामान की तरह ,रहती हूँ।

चहल-पहल अच्छी-खासी है बस्ती में
बस मैं ही सुनसान की तरह रहती हूँ।

बोले पर प्रतिबंध नहीं है पर चुप हूँ
मुँह में रखी ज़ुबान की तरह रहती हूँ।

जो भी कुछ था, चला गया,जाने कैसे!
खाली अमृतबान की तरह रहती हूँ।

जब कोई अपना-सा मिलने आता है
तब कुछ लम्हे ,जान की तरह ,रहती हूँ।

कभी-कभी मैं चलती-फिरती हूँ घर में
कभी-कभी इनसान की तरह रहती हूँ।

जैसी भी हूँ, अच्छी हूँ, त्रिलोक ,सुनो!
तकलीफ़ों में ज्ञान की तरह रहती हूँ।

— त्रिलोक कौशिक

त्रिलोक कौशिक

गुरुग्राम