कविता

आह्वान

यह महाप्रलय की बेला है,
भूखण्ड वलय की बेला है।
साहस की अग्नि परीक्षा है,
लय और विलय की बेला है।।

बन मृत्यु द्वार आ धमकी है,
तलवार धार धर चमकी है।
दुश्मन गुर्राया है फिर से,
परमाणु बमों की धमकी है।।

पल-पल वह जहर उगलता है,
सुन कर धक् धैर्य उछलता है।
किस तरह हृदय को करूँ शान्त,
नस-नस में खून उबलता है।।

मतभेद त्याग स्वर में स्वर दो,
सीमा के प्रहरी को वर दो।
आहुति की वेदी पर हैं जो,
उनको निश्चिन्त निडर कर दो।।

आ गया समय हुंकारों का,
बस आग और अंगारों का।
तू-तू, मैं-मैं का समय नहीं,
है समय बमों – टंकारों का।।

अन्तरतम तक में सुलग आग,
जब धधक रही हो जाग जाग।
सुन ध्वंस राग खट राग त्याग ,
उस समय छोड़ कर वीतराग।।

जल्लादों को जल्लाद कहो,
फौलादोँ को फौलाद कहो।
दुश्मन को मुर्दाबाद कहो,
भारत को जिन्दाबाद कहो।।

यों तो तुम शान्ति मसीहा हो,
गीतों के मधुर पपीहा हो।
लेकिन कोई दुश्मनी करे,
उस रिपु के लिए मलीहा हो।।

इसलिए देश उन वीरों का,
मानवता रक्षक हीरों का।
आवाहन करता है खुलकर,
योद्धाओं का रणधीरों का।।

हे तरुण! तनिक हुंकार भरो,
रणचण्डी का उच्चार करो।
भारत माता की जय बोलो,
अरि की छाती पर वार करो।।

सुनकर विवाद डर जाते हैं,
कायर डरकर घर जाते हैं।
उनसे क्या आशा की जाए,
जो बिना मरे मर जाते हैं।।

लेकिन तुम! तुम हो युद्धवीर,
भारत माँ के लाड़ले धीर।
ललकारों का उत्तर देने,
चल पड़ो आँधियाँ तमस चीर।।

तो महाशूर ! तुम निर्विवाद,
इस तरह करो कुछ सिंहनाद।
भीषण निनाद हो शंखनाद,
अरि को आ जाए छठी याद।।

हे वीर ! हाथ से जला दिखा,
उस शौर्य शक्ति की अग्निशिखा।
जिस पर रण जयी शहीदों का,
अजरत्व लिखा अमरत्व लिखा।।

डगमग-डगमग धरती डोले,
विकराल काल मुंँह को खोले।
नक्षत्र टूटने लग जाएंँ ,
बस कर-बस कर बैरी बोले।।

इस तरह धूम्र तूफान उठा,
नभ में प्रलयंकर छा उठे घटा।
दुश्मन थर-थर कँपकपा उठें,
पानी माँगें तू धूल चटा।।

दुश्मनी कफ़न को नाप उठे,
अथ फिर आया इति भाँप उठे।
फिर एक देश की क्या बिसात,
ब्रह्माण्ड समूचा काँप उठे।।

करुणा से दूर कहर बनकर,
क्रूरता कसाई सी भरकर।
दुश्मन पर टूट पड़ो जैसे,
फूटे झरनों से जल हर-हर।।

कर उठे दुश्मनी चीत्कार,
बस त्राहि-त्राहि की हो पुकार।
हा – हा खाए गिड़गिड़ा उठे,
हर बैरी मुँह से बार – बार।।

ऐसी भीषण ज्वाला बरसा,
बम तोप बाण भाला फरसा।
इस तरह चला कर अस्त्र शस्त्र,
दुश्मन को कुछ ऐसा तरसा।।

बलबला रहे बिलबिला उठें,
कुलबुला रहे किलबिला उठें।
खिलखिला रहे खलबला उठें,
तिल मिला रहे तिलमिला उठें।।

बड़बड़ा रहे भड़भड़ा उठें,
तड़तड़ा रहे तड़फड़ा उठें।
फड़फड़ा रहे हड़बड़ा उठें,
गड़गड़ा रहे गिड़गिड़ा उठें।।

विप्लव को कविता सत्य करे,
ज्वाला में ज्वाला गत्य करे।
षोणित की सरिताएँ फूटें,
हर मृत्यु ताण्डव नृत्य करे।।

रण बीच निकलना ही होगा,
अरि दर्प कुचलना ही होगा।
इस बार क्षमा का भाव त्याग,
इतिहास बदलना ही होगा।।

— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

"वृत्तायन" 957 स्कीम नं. 51, इन्दौर 9424044284 6265196070