गीत – टूट रहे नित ख्वाब हैं
दुर्लभ जीवन हुआ आज क्यूँ, मिलता नहीं जवाब है।
महंगाई आकाश छू रही, टूट रहे नित ख्वाब हैं।
आमदनी है एक रुपइया और जरुरत बहुतेरी।
शिक्षा स्वास्थ्य पेट का भोजन, यह जीवन की मज़बूरी।
जीवन के ताने – बाने का हटता नहीं हिजाब है।
महंगाई आकाश……….
निर्धनता के कारण जग में, भेद- भाव गहराताहै।
रोटी कपड़े की खातिर नर सौ-सौ पाप कमाता है।
किसने कितने किए पाप हैं जिसका नहीं हिसाब है।
महंगाई आकाश छू रही………
जन्म ले रहे नवजातों को झाड़ी में फेंका जाता।
निर्धनता के कारण बच्चा भूखा घर में सो जाता।
#महंगी हुई जा रही रोटी, सस्ती यहाँ शराब है।
महंगाई आकाश………….
अमन चैन सुख शांति खो गई प्रेम और सदभाव कहाँ?
महँगी हुई जा रही पल पल अधरों की मुस्कान यहाँ।मानवता दम तोड़ रही है मौसम बहुत खराब है।
महंगाई आकाश……….
धन घमंड के मद बौराता, धनी कहाता है जो जन।
शोषण करता और इतराता मानवता का कर मर्दन।
लोक लाज अब नहीं बची है वाणी भी तेजाब है।
महंगाई आकाश………..
भाई बहन पिता और पुत्री करते यहां ठिठोली अब।
अर्ध नग्न वस्त्रो में नारी गर्वित होकर डोली अब।
जीवन अब निरुपाय हुआ है पापों का सैलाब है।
महंगाई आकाश…………
नयन गागरी छलक रही है आन बचाओ हे गिरधर।
कुल मर्यादा बिखर रही है तुम्ही संभालो हे प्रभुवर।
गोविन्द तेरी कृपा प्राप्त हो ‘मृदुल’ हुई बेताब है।
महंगाई आकाश…….
— मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”
