गीत/नवगीत

गीत : फांसी का फंदा…

कुदरत का अभिशाप हुआ है, कृषक होना पाप हुआ है।
झूल रहा फांसी पर कृषक, चंहुओर संताप हुआ है।
कुदरत के इस रौद्र रूप का, कोप बना है ग्राम देवता,
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है।

सरकारों की क्षति-पूर्ति, उसको ज्यादा से ज्यादा हो।
न मिथ्या का अनुकरण हो, न कोई कोरा वादा हो।
सरकारें जब दर्द सुनेंगी, तो कृषक को सुख आयेगा।
भूखा-प्यासा कृषक फिर से, सब्जी रोटी चख पायेगा।

भस्म हुये हैं सारे सपने, दुख का इतना ताप हुआ है।
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है …

बेटी की शादी का सपना, बेमौसम बारिश ने लूटा।
क्रूर बनी ओलावृष्टि से, कोमल फसलों का तन टूटा।
“देव” वो देखो कृषक के घर, चीख हैं या फिर है सन्नाटा,
फसल महीनों पाली लेकिन, एक दो दिन में नाता टूटा।

आशाओं के जल का संचय, क्षण भर में ही भाप हुआ है।
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है। ”

“कुदरत की मार सह रहे किसानों को सांत्वना, दुआ और स्नेह सहित सादर समर्पित रचना”
(CR सुरक्षित )

………………… चेतन रामकिशन “देव”

3 thoughts on “गीत : फांसी का फंदा…

  • जय प्रकाश भाटिया

    चेतन जी,

    आपकी की प्रेरणा से– चार पंक्तियाँ–

    देश को रोटी खिलाने वाला,

    खुद रोटी को मोहताज़ है,

    यह कैसी व्यवस्था है,

    और यह कैसा समाज है,

    गरीब रोटी को तरस रहा है,

    अमीर रोटी को दुत्कार रहा है,

    अन्न जो जीव का जीवन है,

    कुदरत की मार से भी बेहाल है,

    नूडल,बर्गर,पीज़ा,सब मालामाल है,

    विदेशी भर रहे हैं अपनी तिजोरियां,

    और बेचारा “अन्नदाता ” कंगाल है,

    ११/०४/२०१५ –जय प्रकाश भाटिया

    • विजय कुमार सिंघल

      वाह वाह !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक और सामयिक गीत !

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