कविता

एक भिखारिन

बदन में थोड़ी सी मिट्टी बचाए;
उम्र के मधुमास को पीछे छोड़,
टूटे घरौंदे के टुकड़े समेटे;
तन के दीपक में प्राण बाती जलाए,
जाने कब से जल रही है वह ,
अपनी आस्था लिए नर्मदा तट पर !

आंधी, बारिश, गर्मी, सर्दी;
मौसमी परिवर्तनों को झेलते,
अंतर्मन में पहाड़ सा दर्द समेटे;
होठों पर चुप्पी लगाए,
टुकुर टुकुर देखती वे दो आंखें जाने कब से?
अपलक ताक रही है नर्मदा तट को !

अनगिनत झुर्रियों को समेटे :
कंपकपाती ,श्याम वर्ण काया,
थकान की वेदना से आहत;
मानस में उभरती चिंतन रेखाएं,
सुधा कलश की तलाश में;
माथे पर आस का चंदन लपेटे,
दिख जाती है वह नर्मदा तट पर !

झिड़कियां, ताने सुनती, हाथ पसारे;
आंखों की कोरों पर टिमटिमाते आंसू,
जिन में दर्द है पर कोई मर्म नहीं;
अनकही अबूझ पहेली की तरह,
कोई फरियाद दिल में दबाए;
नेपथ्य को ताकती सूनी आंखें,
उपेक्षित संगी साथियों की टोली के साथ;
जाने कबसे जी रही है वह,
राम नाम जपते नर्मदा के तट पर !!!!

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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