कविता

ऐसा नहीं कि…

एसा नहीं की संवेदना नहीं है इंसान में
उन्माद के अतिरेक में जबरदस्ती छटपटाती पड़ी है दिल की संदूक में.!
एसा नहीं की विश्वास नहीं है इंसान में
स्वार्थ ओर मोह के अड़ाबीड़ जंगल में खो गया है जैसे कोई मासूम बच्चा खो जाता है मेले में.!
एसा नहीं की प्यार नहीं है इंसान में
मन में छुपी काम ओर वासना के मलबे के नीचे सोया है अलसाए.!
एसा नहीं की श्रद्धा नहीं है इंसान में
मांगने की आदतों में मंदिर की चौखट पर दम तोड़ती पड़ी है.!
एसा नहीं की इंसानियत नहीं है इंसान में
बस आपखुदी ओर अहंकार में डूबकर अपनों को ही भूल रहा है.!
— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर