संस्मरण – मां ने कहा था
अगर मैं सर्विस में न होता तो लेखक न होता और लेखक न होता,तो एक बड़ा ठेकेदार होता और हजारों नहीं बल्कि लाखों में कमाता और हर दिन एक झूंड में चल रहा होता …!
किसान का बेटा किसान ही होता है, ऐसा कहा सुना जाता था,आज भी गांव के चौक चौराहों पर इस तरह की चर्चाएं यदा कदा सुनने को मिल जाती है । लेकिन एक मलकटा का बेटा लेखक बनेगा यह न कहीं पढ़ने को मिला और न कहीं कानों सुना था और मेरे घर में तो साहित्यिक माहौल का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं था । हां शराब की महक मेरे घर के कोने कोने में रची-बसी हुई जरूर थी । बाप के जीवन में शराब हमेशा भरा हुआ मिला । वह गांव में झाड़ फूंक का काम करता था, डॉक्टर इलाज के पैसे लिया करता था,मेरा बाप झाड़ फूंक का दारू लिया करता था और मां एक खदान में मजदूरा थी मतलब मलकटा । कोयला खान में कठोर परिश्रम करने वाली मां । वह मेहनत की कमाई घर लाया करती थी । कहानी के बारे में मैंने सबसे पहले अपनी मां से ही जाना था । जब वह शाम को काम से लौटती तो अपने साथ ढेर सारी कहानियां लेते आती थी । छिन झपट ! लपड पपड ! महिला मलकटों के साथ ठेकेदार के लंपट मुंशियों की कारगुजारियों के कारनामे बाप को सुनाती थी । तब मै तेरह चौदह साल का रहा होगा । और नेहरू उच्च विद्यालय तेलो में क्लास आठ में पढ़ता था । यहां मुझे एक शिक्षक से दोस्ती हो गई थी। बाजारू उपन्यासों को वह खूब पढ़ा करता था । बाद में यह बुरी लत मुझे भी लग गई । फिर तो प्रेम बाजपेयी, गुलशन नंदा, मनोज जैसे बाजारू उपन्यास कारों की दर्जनों किताबें मैंने पढ़ डाली लेकिन तभी एक दिन प्रेमचंद की निर्मला हाथ लग गई । मेरे जीवन में न भूलने वाली घटना । स्कूल के हिन्दी शिक्षक और हेडमास्टर शिवदत्त शर्मा के हाथ में पहली बार देखा था-निर्मला को । वह कई दिनों से उसे लेकर क्लास में आ रहे थे और और मैं बड़ी ललचाई नज़रों से उसे देखा करता था । पढ़ाते वक्त एक दिन हेड सर ने मेरी चोरी पकड़ ली । तब मेरा ध्यान पढ़ाई की जगह निर्मला पर थी । वह अनुशासन के बहुत पक्के थे । हाथ से खड़े होने का इशारा किये । बोले-” क्लास के बाद आफिस में आकर मिलो…!” मेरी तो सिटी पिटी गुम । बाहर साथियों ने और भी डरा दिया” उपन्यास पढ़ने का तुम्हारा भूत आज उतार देंगे हेड सर…!”
दोपहर को डरते डरते आफिस में कदम रखा । हेड सर अकेले बैठे हुए थे और सामने टेबल पर निर्मला रखी हुई थी । मैं कभी निर्मला को देखता तो कभी हेड सर को । तभी…
” सुना है क्लास की किताबों से कहीं ज्यादा दिलचस्पी तुम्हारा बाजारू उपन्यासों में रहता है…!” हेड सर ने कहना शुरू किये ” पर तुम्हारी मार्क शीट रिपोर्ट देखी मैंने, सबमें सेवंटी-एट्टी ! कब पढ़ते हो क्लास की किताबें….?”
मेरा तो मुंह बंद ! काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो आईं थी !
” बोलो, चुप काहे हो…?”
” क्या बोलूं सर, सच बोला नहीं जा रहा और झूठ मैं बोल नहीं सकता हूं ! सुबह चार बजे भोर से छः बजे तक क्लास की किताबें पढ़ता हूं और रात आठ बजे से दस बजे तक प्रश्नोत्तर लिखता हूं..!” बड़ी मुश्किल से बोल पाया था ।
” ट्यूशन कब पढ़ते हो…?”
” कभी नहीं, ट्यूशन पढ़ने को बाप पैसे नहीं देते और फोकट में कोई ट्यूशन पढ़ाते नहीं है…!”धीरे धीरे मुझमें साहस लौट रहा था
” इधर आओ, सामने..!” मैं हेड सर के करीब पहुंच गया
” आज मुझे खुशी हो रही है, तुम्हारा एडमिशन लेकर हमने कोई गलती नहीं की थी, तुम जैसा विधार्थी मिलना हमारे स्कूल के लिए गर्व की बात है, लो ले जाओ,पढ़ कर आफिस में जमा कर देना, दूसरी और किताबें मिल जाएंगी .!”हेड सर ने निर्मला मेरे हाथ देते पीठ थपथपा दी थी । झट से मैं उनका चरण स्पर्श कर बाहर निकल गया था ।
बाहर दोस्तों ने घेर लिया । मैंने उन्हें निर्मला दिखा दी । उन सबका मुंह बगुले की तरह हो गया था ।
फिर तो स्कूल लाइब्रेरी मेरा दोस्त बन गया । बाजारू उपन्यासों से पिण्ड छुटा और साहित्यिक उपन्यासों से दोस्ती शुरू हो गई । बाद में मुझे यहीं से गोदान,गबन और सेवा सदन पढ़ने को मिली । लेकिन उस दिन मै भाव विभोर हो उठा जब कहीं से लाकर हेड सर ने मुझे मक्सिम गोर्की की ” मां ” पढ़ने को दिये और बोले” इसे पढ़ो, मूरत पूजने की जगह मां की पूजा-अराधना करने लगोगे…!”
मैं स्कूल लाइब्रेरी में गोर्की की मां को पढ़ता और घर आने पर विषम परिस्थितियों से जूझते, लड़ते हुए काम करने वाली अपनी मां को देखता । कितनी समानता थी गोर्की और मेरी मां के कर्मों में । धीरे धीरे मैं गोर्की की मां में अपनी मां को ढूंढना शुरू कर दिया था ।
दो साल का समय किस तरह बीत गया पता नहीं चला । हां मैं कितना पढ़ाकू हूं,यह पूरे स्कूल को पता चल गया था । मैट्रिक इम्तिहान सर पर सवार था । दूसरे साथी किताब छोड़ गेस पेपर पढ़ पढ़ कर आंखें फोड़ रहे थे और मैं दिन रात किताबों में डूबा रहता था । मैंने भी कम कीमत वाली एक गेस पेपर खरीदी थी पर उससे कहीं ज्यादा मुझे खुद पर भरोसा था । टेस्ट परीक्षा में हिन्दी में पंचान्बे नं देख कर हेड सर ने कहा था-” ऐसा लग रहा है, स्कूल के पिछले सारे रिकॉर्ड टूटने जा रहे हैं..!”
पढ़ने का जुनून मेरा कभी कम नहीं हुआ । न क्लास के किताबों को अपने से अलग कर सका और न उपन्यासों से दूर रह सका । वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी । भरखर आषाढ़ में परिणाम निकला । तब मैं धन रोपा कार्य में लगा हुआ था और उस घड़ी कुदाल से मेढ़ बांधने का काम कर रहा था । तभी मेरा एक पड़ोसी जिन्हें मुझे उपन्यासों को पढ़ते देखना फूटी आंखों नहीं सुहाता और हमेशा मेरा मजाक उड़ाया करता था” देखना यह मुटरा, बुरी तरह फेल करेगा…!” एक कोलियरी में वह सरकारी डम्फर चालक था । उस दिन वही रिजल्ट वाला हिन्दुस्तान अखबार लिए सीधे मेरे खेत में पहुंच गया था । उसे सामने से आता देख चौंका था मैं ” इस वक्त यह यहां क्यों आ रहा है ? क्या मैं सचमुच फेल कर गया और यह उसी का ताना मारने चले आ रहा.. ऐसा कैसे हो सकता है.!” मैं सोच ही रहा था कि…
” बहुत बहुत बधाई हो मुटरा, तुमने अपनी नुना बखरी का नाम ऊंचा कर दिया.पूरे गांव में फस्ट आया है तू…!” इसी के साथ उसने मेरे कीचड़ से लथपथ देह को उठा लिया था और मुझे कबीर और उनकी वाणी याद आने लगे थे-” निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय…!”
वक्त के साथ आदतें बदली परन्त किताबों की पढ़ने की भूख कभी कम नहीं हुई । लेकिन कॉलेज जाना मेरे जीवन को रास नहीं आया । पहले बाप को रास नहीं आया । आगे पढ़ने से मना करता रहा ताकि घर के सारे काम मैं करूं और उसका झाड़ फूंक का धंधा मंदा न पड़े । यहां मेरे पक्ष में मां तन कर खड़ी हो गई-” यह कॉलेज जायेगा,खूब पढाई लिखाई करेगा , खदान में पढे लिखे लोग किस तरह ठाठ से रहते हैं,घर में बैठे बैठे तुम क्या जानो ..?” कह मां ने बाप से मोर्चा ले ली थी लेकिन बहुत दिन नहीं बीते जीवन के मोर्चे में वह खुद हार गयी । कॉलेज में अभी मेरा पहला साल गुजर रहा था कि एक फेटल एक्सीडेंट में मां चल बसी । सर में गहरी चोट के कारण उसे ब्रेन हैमरेज हो गई थी । छतीस घंटे मौत से लड़ते-लड़ते वह हार गयी । मरने से एक माह पूर्व मां ने पड़ोस की चाची से झगड़ा मोल ले ली थी । उस दिन सुबह सुबह चाची अपनी इकलौती पुतोहू को घर से धकियाते हुए निकाल रही थी-‘ पता नहीं कौन जनम में पाप की थी जो ऐसन कुलछनी पुतोह मिली जो दनदना के बेटी निकाल रही है ! पोता का मुंह देखे वास्ते आंखें तरह गई मेरी.!” और चाची ने पुतोहू को घर से बाहर निकाल दी ” जाओ, बाप घर में बेटी निकालते रहो.हम अपने बेटे का दूसरा बिहा कर देंगे..!” और गुस्से में आंगन का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया था । यह मेरी मां से देखा नहीं गया और
मां टपक पड़ी थी ” अगर यही सब कुछ तुम्हारी राधा बेटी के साथ उसके ससुराल के लोग करेगें तो तुमको कैसा लगेगा ? परक बेटी को लात और आपन बेटी को भात..? “
” तुमको कौन बुलाया था जो टांग पसारने चली आई .?” हुडकी खोल चाची बमक कर बाहर निकल आई थी ।
इसी पर मैंने एक कहानी लिखी ” नारी तेरे रूप कितने “
लेकिन जिस मां की प्रेरणा से मैंने यह कहानी लिखी, उसे सुनने से पहले मां ने इस दुनिया से विदा ले ली ।
उसकी जगह मुझे काम मिल गया । इस दौरान खदान को मैंने बहुत नजदीक से देखा-जाना , मजदूरों की जीवन-दशा और उनकी गाढ़ी कमाई पर गिद्ध नजर गडाये भेड़ियों को देखा । मजदूरों और उनकी स्त्रियों के नंगे बदन पर लिखी लूट खसोट की इबारतों को पढ़ा । जब भी मैं किसी व्यथित मजदूर से मिलता, मेरे भीतर एक कहानी का जन्म हो चुका होता । सच को सच और गलत को कहने की साहस हमने मां में देखा था । आज मैं अपने गांव का इकलौता कथा लेखक हूं तो इसके पीछे ” मां ” ही प्रेरणा श्रोत है और उनकी प्रेरणा ही मेरे जीवन का मूल आधार है !!
— श्यामल बिहारी महतो