दुनिया को सन्देश देकर उड़ गया हंस अकेला
हिसार के लाजपत नगर में रह रहे बुजुर्ग राज्य कवि उदयभानु हंस से इंटरव्यू तो एक बहाना था, असल में मुलाकात का सौभाग्य मुझे वहां खींचकर ले गया। 89 साल की उम्र में अगर आप तारीखों और संस्मरणों को ज्यों का त्यों याद रखने की उम्मीद रखते हों तो यह एक बुजुर्ग के साथ नाइंसाफी होगी। हां, अनुभव और बातों के खजाने में डुबकी लगाने का मन हो तो मौकों की कमी नहीं होती। तभी तो उस समय करीबन तीन घंटे उनकी सोहब्बत में कब बीत गए, पता ही नहीं चला। वो पहले कवि थे जिनसे मेरा स्कूली पढाई के दौरान परिचय हुआ। 2015 में मैंने उनका एक साक्षात्कार किया था। उस अंतिम मुलाकात में उन्होंने अपना स्नेही हाथ मेरे सिर पर रखा था, 26 फ़रवरी 2019 को वो अपनी रुबाइयाँ हमें सौंपकर इस दुनिया से चले गए। उनके जाने पर आज भी गमजदा हूं। आज श्रद्धांजलि स्वरूप आलेख उन्हें अर्पित कर रहा हूं।
यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची,
तेरी तस्वीर बना बैठा।
उदयभानु हंस हरियाणा के प्रथम राज्य-कवि थे और हिंदी में ‘रुबाई’ के प्रवर्तक कवि रहे जो ‘रुबाई सम्राट’ के रूप में लोकप्रिय आज भी लोकप्रिय हैं। 1926 में पैदा हुए उदयभानु हंस की ‘हिंदी रुबाइयां’ 1952 में प्रकाशित हुई थीं जो नि:संदेह हिंदी में एक ‘नया’ और निराला प्रयोग था। आपने हिंदी साहित्य को अपने गीतों, दोहों, कविताओं व ग़ज़लों से समृद्ध किया। 1966 में जब हरियाणा अलग राज्य बना, तो उदय भानु को हरियाणा का राज्य कवि घोषित किया गया। उन्हें 2006 में सुर पुरस्कार और 2009 में हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा हरियाणा साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया। उनके सम्मान में हर साल उदय भानु हंस पुरस्कार दिए जाते रहे। उदय भानु का जन्म 2 अगस्त 1926 को पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ जिले के दायरा दीन पनाह में हुआ था । 1947 में भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार हिसार आ गया जब वह 22 साल के थे।
उन्होंने हिंदी भाषा में कला में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की और शिक्षक के रूप में शामिल हो गए। यशपाल शर्मा उनके छात्रों में से एक थे। वह सरकारी कॉलेज, हिसार के प्रिंसिपल के रूप में सेवानिवृत्त हुए और हिसार में रहते थे। वह चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के सचिव और हरियाणा साहित्य अकादमी की सलाहकार समिति के सदस्य भी थे। प्रसिद्ध गीतकार ‘नीरज’ तो हंस को मूल रूप से गीतकार मानते थे, वे कहते हैं, “नि:संदेह हंस की रुबाइयाँ हिंदी साहित्य में बेजोड़ कही जा सकती हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति का प्रमुख क्षेत्र गीत ही है।” सुप्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन ‘हंस’ जी को को हिंदी कविता की एक विशेष प्रवृति का पोषक मानते थे। यह ‘हंस’ जी की क़लम ही है, जो माटी के दर्द को भी वाणी दे सकती है-
“कौन अब सुनाएगा, दर्द हमको माटी का,
‘प्रेमचंद’ गूंगा है, लापता ‘निराला’ है।”
आपने मीडिल तक उर्दू-फारसी पढ़ी और घर में अपके पिताजी हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे। आपके पिताजी हिंदी और संस्कृत के विद्वान थे और कवि भी थे। बाद में आपने प्रभाकर और शास्त्री की, फिर हिंदी में एम.ए। आपने सनातन धर्म संस्कृत कॉलेज, मुलतान और रामजस कॉलेज, दिल्ली में शिक्षा प्राप्त की। उदयभानु हंस हिंदी में ‘रुबाई’ के प्रवर्तक कवि थे जो ‘रुबाई सम्राट’ के रूप में लोकप्रिय हैं। 2 अगस्त, 1926 को पाकिस्तान के दायरा दीप पनाह गांव में पैदा हुए उदयभानु हंस की ‘हिंदी रुबाइयां’ 1952 में प्रकाशित हुई थीं जो नि:संदेह हिंदी में एक ‘नया’ और निराला प्रयोग था। इन्होंने हिंदी साहित्य को अपने गीतों, दोहों, कविताओं व गजलों से समृद्ध किया है।
आखिर में मैंने उनसे पुछा था, “अपनी काव्य यात्रा से क्या वे संतुष्ट हैं? उदयभानु हंस जी ने हंसते हुए कहा-
यूं तो मैं साधुओं-सा अलाप भी कर लेता हूं,
कभी-कभी मन्त्रों का जाप भी कर लेता हूं।
मानव से कहीं देवता न बन जाऊं मैं,
यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ।।
हंस जी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था फिर भी बोले, “पता नहीं कितने लोग तो पीएचडी कर चुके हूं मेरी रुबाइयों और कविताओं पर। संत सिपाही महाकाव्य लिखा है। हरिवंशराय बच्चन तक ने मेरी रुबाइयों की तारीफ की है। मान-सम्मान सब मिला है। भला इससे ज्यादा मैं क्या पाऊंगा। राज्यकवि का दर्जा मिला। बहुत है, खुश हूं।” आखिर में सिर पर हाथ रखकर बोले-बेटा! जीवन की अंतिम सांझ पर बैठा हूं, वक्त मिले तो आते रहना।” ये मुलाकात मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊंगा, हां मैं फिर उनसे मिल पाने का वक्त नहीं निकाल पाया इसका मलाल है। हंस जी ने स्वयं लिखा था-
मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते,
अपना भी होश भुला बैठा।
— डॉ. सत्यवान सौरभ,