कविता

मैं हूं हिंदी की किताब,

मैं हूं हिंदी की भूली बिसरी किताब,

कभी था मेरा रूप रंग लाजवाब, 

जिल्द फटी, मूडे, मोडे हुए पन्ने, 

बिखरने के डर से सहमे हुए हैं सब।।

छंद, लय, ताल से अलंकृत रचनायें,

मुक्तक मुस्कुराते, शिक्षाप्रद कथायें,

कभी मेरा भी था रुतबा, रूबाब,

सहमी, सिमटी, बह रही अश्रू धारायें।।

अपने ही हिकारत भरी नजर से घुरते,

हिंदी हमारी मातृभाषा भूल जाते,

विदेसी भाषा मोहजाल में उलझकर ,

अपनी राष्ट्रभाषा को गौण समझते।।

मैं कभी परमात्मा गुणगान करती,

प्रेम रस धार पगे गीत गुनगुनाती,

न हो उपेक्षा, मिले मुझे सम्मान,

पुरी होवे आस, करूं मैं विनती।।

मानस निश्चल भाव करूं मैं  झंकृत, 

विश्वास अटल, रहूंगी मैं शृंगारित,

प्रियदर्शिनी, मैं हूं हिन्दी की किताब,

आपकी अपनी सखी, मित्र, मनमीत।।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८