हाइकु/सेदोका

कितना अकेला है ऊपर वाला!

कितना अकेला है ऊपर वाला;
जगत जिसका है इतना अलवेला!

बिना बात का रचा खेला;
लग गया यहाँ मेला!

ना कुछ लगाया ना पाया;
जगत का व्यापार संजोया!

सब है उसके मन की माया;
ना कोई आया ना गया!

अंदर ही सब उपजाया;
बंदर यों ही इतराया!

सब आए, गए औ समझे;
अस्तित्व का मर्म बूझे!

वही था जो नट बन नाचा;
बदल वसन हमको जाँचा!

हम देखे उसका नाच;
वह देखा हमारा साँच!

हमारी श्वाँस में था उसका वास;
हम बैठे यों ही उदास!

घर हमारा दर उसी के;
किरदार किरायेदार उसके!

बिन बात के रहे फुदके;
कहाँ थे हम कुछ किसी के!

आए गए पाए खोए;
जग कर स्वप्न झाँके!

सब बाँके रहे बा के;
चोंके जब झाँके!

अद्भुत है ज़माना;
उसी का है तराना!

चौतरफ़ा निशाना;
भूले श्वाँस का आना-जाना!

मैं चला तो जाना;
कहीं नहीं था जाना!

— गोपाल बघेल ‘मधु’

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