कविता

बचपन का गाँव

ठण्डी-ठण्डी छांव में
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ।
तोडऩा चाहती हूँ
बंदिश चारों पहर की।
नफरत भरी ये
जिन्दगी शहर की॥
अपनेपन की छाया
मैं पाना चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हँ हूँ॥
घुट-सी गयी हूँ
इस अकेलेपन में
खुशियों के पल ढूँढ रही
निर्दयी से सूनेपन में
इस उजड़े गुलशन को
मैं महकाना चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ।
प्रेम और भाईचारे का
जहाँ न संगम हो।
भागे एक-दूजे से दूर
न मिलन की सरगम हो॥
उस संसार से अब
मैं छुटकारा चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ।

— प्रियंका ‘सौरभ’

प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh