कविता : इक और मीरा
इक और मीरा झुकी-झुकी इन पलकों में, सपनों की घटा है छाने लगी ! अजब बेचैनी मेरे मन में, घर
Read Moreइक और मीरा झुकी-झुकी इन पलकों में, सपनों की घटा है छाने लगी ! अजब बेचैनी मेरे मन में, घर
Read Moreन तोड़ना चाहते थे… हम नियमों की दीवारें ! और न जाने कितनी बार बेमौत मरे हम !! अंजु गुप्ता
Read Moreउलझन मन की सुलझ न पाए… कहूँ या छुपा लूँ हैं ऐसे ख़याल कईं !! तरसती आँखें रस्ता निहारें… मिलोगे
Read Moreकभी अजनबी… कभी पहचाने से तुम लगो ! बँध गया है इक रिश्ता, कच्चे धागे से !! मर्यादित है… ना
Read Moreपरिन्दों सी निकली मुहब्बत भी तेरी ! बदला जब मौसम बदल लिया फिर ठिकाना !! मिलने की चाहत हरदम रहती
Read Moreइक खामोशी अक्सर फैल जाती है हम दोनों में कभी -2… इक दूजे में गुम होना भी अच्छा लगता है
Read Moreबार -2 जिक्र करके… याद करते हैं हम तुमको जिद है तुम्हें पाने की… मुकद्दर में तुम नहीं हो !!
Read Moreबारिश बाट निहारे, बैठी विरहन लिये ख्वाब अधूरे रोती है ! शिकवा कर बतलाये किसको आँखों से बारिश भी होती
Read Moreहोश जब आया तो … तुम दूर जा चुके थे अपनी ज़िंदगी से हमको भूला चुके थे अहसास इस दूरी
Read Moreफिर बाँध उम्मीद और छोड़ निराशा आशा से फिर से तू नाता जोड़ !! कर मंथन प्रयासों का अपने मेहनत
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