मधुगीति : लय प्रलय से बहुधा परे
लय प्रलय से बहुधा परे, वे विलय करते विचरते; हर हदों को वे नाख़ते, हर हृदय डेरा डालते ! हर
Read Moreलय प्रलय से बहुधा परे, वे विलय करते विचरते; हर हदों को वे नाख़ते, हर हृदय डेरा डालते ! हर
Read Moreमन ज्ञात है अज्ञात को, अज्ञात ना कुछ ज्ञात को; चलता है पर अज्ञात सा, रचता जगत अनजान सा !
Read Moreअज्ञान में जग भासता, अणु -ध्यान से भव भागता; हर घड़ी जाता बदलता, हर कड़ी लगता निखरता ! निर्भर सभी
Read Moreसुर सुहाने उर रूहाने, आनन्द धारा ले चले; अज्ञात को कर ज्ञात मग, कितनी विधाएँ दे चले ! विधि जो
Read Moreसुलगा हुआ जग लग रहा, ना जल रहा ना बुझ रहा; चेतन अचेतन सिल-सिला, पैदा किया यह जल-जला । तारन
Read Moreछलका रहा होगा झलक, प्रति जीव के आत्मा फलक; वह मूल से दे कर पुलक, भरता हरेक प्राणी कुहक ।
Read Moreहर एक पल कल-कल किए, भूमा प्रवाहित हो रहा; सुर छन्द में वह खो रहा, आनन्द अनुपम दे रहा ।
Read Moreप्रतिबिम्ब सूरज का प्रकट, पुलकित था दर्पण को किया; आलोक भर अद्भुत दिया, पर मूल ना देखा किया । है
Read Moreरहते हुए भी हो कहाँ, तुम जहान में दिखते कहाँ; देही यहाँ बातें यहाँ, पर सूक्ष्म मन रहते वहाँ
Read Moreझकझोरता चित चोरता, प्रति प्राण प्रण को तोलता; रख तटस्थित थिरकित चकित, सृष्टि सरोवर सरसता । संयम रखे यम के
Read More