कविता

सुनो समाजवादी कवि

सुनो समाजवादी कवि 
तुम लिखते हो गर्म दोपहर में 
रेगिस्तान में और गर्म होती रेत में 
खड़े एक सूखे ठूंठ पर ..
जिसको तुम कहते हो पेड़…
तुम लिखते हो नारी पर
अबला की पीर पर ..
दिखाते हो उसकी व्यथा 
जो कविता का अंत होते-होते 
नग्नता तक पहुँच जाती है
तुम लिखते हो भूख पर
पेट की अंतड़ियाँ गिनाकर
तुम लिखते हो पसीनें का सौदर्य
और समझते हो स्वयं को श्रेष्ट
तुम नकारात्मकता को कहते हो यथार्थ
और मैं लिखता हूँ प्रेम ……
मैं तुम्हारे ठूंठ में भी तलाश लेता हूँ आस
मैं तुम्हारी व्यथित स्त्री में भी ढूँढ लेता हूँ स्वप्न
मैं तुम्हारी भूख में भी खोज लेता हूँ विश्वास
जिन्हें तुम कहते हो दिवास्वप्न …
मैं उसको कहता हूँ जीवन ………
यदि मेरे दिखाए सपनें
किसी को देते है एक पल की आस
किसी में जागते है विश्वास ………
किसी के चेहरे पर लाते है मुस्कान
तो मेरा लेखन है पूर्ण …………….
और तुम्हारा ……………………..
तुम ढोते रहो समाजवाद की लाश
और कभी तुमको भी देखने हों सपनें
तो चले आना मेरे पास …………….
तुम्हें लौटाऊँगा नहीं ……………….
दे दूंगा अपना सबसे प्यारा सपना ………
क्यूंकि तब मैं नहीं देखूँगा तुम्हारी विचारधारा
मैं देखूँगा तुम्हारा तुम्हारी हिम्मत …..
जो तुमनें लगाई मुझ तक आने में ……..
__________तुम्हारा अभिवृत | कर्णावती | गुजरात

2 thoughts on “सुनो समाजवादी कवि

  • विजय कुमार सिंघल

    हा…हा…हा.. आपने ‘समाजवादी’ कवियों की अच्छी वाट लगायी है. ये सब धूर्त और बिकाऊ होते हैं.

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