उपन्यास अंश

उपन्यास: उम्र (दूसरी कड़ी)

रमेश ने इन सारी समस्याओं का हल निकाल लिया उसने दिल्ली जाने का विचार बनाया! आकाश से इस बारे में चर्चा करने वो उसके घर पंहुचा! उस दिन आकाश की पत्नी काव्या घर पर थी, बरामदे में बच्चे खेल रहे थे बड़े से बंगले के अन्दर प्रवेश करते हुए रमेश की नजर काव्या पर पड़ी!! काव्या ,आकाश और रमेश कभी कॉलेज में अच्छे दोस्त हुआ करते थे यकायक काव्या को देखकर रमेश की आँखों में प्रश्न उभरा और जुबान पर आ भी गया “आकाश नहीं है क्या आज घर पर?” इस प्रश्न पर मुस्कुराते हुए काव्या ने कहा “नहीं, थोडा काम से बाहर गए हैं!” दोनों हॉल में बैठे बातें कर रहे थे की तभी नन्हा अंश खेलते हुए अन्दर आया उसकी उम्र कुछ ३ वर्ष की रही होगी और अपनी तोतली भाषा में ही रमेश को देख बोल उठा “ताता…” अचानक रमेश मुडा और मुस्कुराते हुए उसे गोद पर उठा लिया और फिर तुतलाते हुए ही बोला ”कहाँ था मेला अंश बेता… आदा… तातू की गोदी में बैठ दा…” और इस तरह वो अंश को खिलाने लगा इस बीच काव्या सोफे से उठी और चाय के लिए किचेन की तरफ बढ़ी तभी रमेश ने कहा ”अरे रहने दो काव्या ,’चाय नहीं पियूँगा, कुछ मत करो मैं तो बस कुछ बताने आया था!!” ‘वाह वाह रमेश अब मेरे हाथों की चाय भी तुम्हे अच्छी नहीं लगती क्या?’,काव्या ने कहा! इसपर रमेश ने मुस्कुराते हुए कहा “अरे ऐसी बात नहीं है!” ‘अच्छा तो कैसी बात है?’ लगता है तुम्हारा मन अब किसी और के हाथों की चाय पीने का होने लगा है?” इतना कहकर काव्या जोर से हंस दी!! इस हंसी में रमेश को बड़ा व्यंग्य सा नज़र आया लेकिन उसने इस बात को छोड़कर मुस्कराते हुए कहा “लो अब तुम भी शुरू हो गयी?” इसपर काव्या थोडा झिझकी और फिर मुस्कराते हुए कहने लगी “अरे रमेश मैं तो कह रही थी कि तुम अब शादी क्यों नहीं कर लेते उम्र बढती ही जा रही है और तुम हो कि एक सरकारी नौकरी के पीछे पड़े हो…” “बस बस काव्या देवी जी मैं आपके प्रवचन सुनने नहीं आया हूँ…बल्कि ये बताने आया हूँ कि मैं दिल्ली जा रहा हूँ” काव्या अब थोड़ी संजीदगी से सुनने लगी और पूछ उठी “दिल्ली??” क्यों??” रमेश बोला “यही पीएससी की तैयारी करने, ये मेरा आखिरी मौका है अगले बरस ३१ का हो जाऊंगा तो और बड़ी कठिनाई हो जायेगी” उम्र तो ऐसे बढ़ रही है जैसे उम्र ना हो बल्कि फूलता गुब्बारा हो” रमेश की इस बात पर काव्या फिर हंस पड़ी फिर शांत हुयी और बोली “अच्छा तो आखिरी युद्ध की तैयारी में निकले हैं जनाब?” रमेश ने मुस्करा कर कहा “हाँ यही समझ लो!!” इस बीच अपने ताता की गोद में बैठा अंश उतरा और फिर बाहर की तरफ भाग गया! रमेश सोफे पर बैठा उसे देख रहा था अचानक उसने काव्या से कहा “बचपन में मैं भी ऐसा ही था” काव्या भी अंश को भागते देख रही थी और वही सोफे के पास खड़ी खड़ी रमेश की ओर देखकर मुस्कराती हुयी बोली “हाँ… बचपन बहुत खुबसूरत था!!” कुछ देर दोनों ने एक दुसरे को देखा और एक अनंत ख़ामोशी सी छा गयी जैसे उस ख़ामोशी के पीछे एक गहरा रहस्य था! दोनों ने फिर अपनी अपनी आँखें फेरी और अंश को देखते हुए काव्या बोली “तो कब की तैयारी है राजधानी जाने की?” रमेश ने कहा इसी महीने की आखिरी तारीख का रिजर्वेशन करवाया है” चलो अच्छा है मैं आकाश के साथ तुम्हे छोड़ने जरुर आउंगी “ काव्य ने इतना कहा और फोन बज उठा “ट्रिन…ट्रिन…” काव्या ने टेबल पर रखे फोन को उठाया और बोली “हेल्लो…” कौन?” अरे जया भाभी जी! मुस्कराते हुए काव्या फोन पर बात करने में लग गयी और इतने में रमेश सोफे से उठा और उसे अपने जाने का इशारा करता हुआ बाहर आ गया! अन्दर काव्या फोन पर भिड़ी रही और उसने इशारे से ही रमेश को बाय कह दिया था! रमेश बाहर आया कुछ देर बरामदे में उछल कूद करते अंश को देखा और आगे बढ़ गया रास्ते भर वो अपने बचपन को याद करता पैदल चला जा रहा था! रास्ते में कुछ बगीचे पड़ते थे जिनकी तरफ रमेश अपनी नज़र एक क्षण के लिए देखता और फिर फेर लेता, बगीचों में जाना वो कॉलेज के बाद से ही छोड़ चुका था ,उसे याद आता है जब वो अनीता के साथ अक्सर कॉलेज के दिनों में बगीचों पर जाता और अपने सब्जेक्ट की किताब लेकर अनीता की गोद में सर रखकर किताब को देखता रहता, हरी हरी घास पर लेटता और कभी कभी किताब बोल बोलकर पढता और अनीता को सुनाता, एक पल के लिए उस क्षण को याद करता और फिर याद करता उनके रिश्ते के दुखद अंत को जो रमेश की आये दिन की चिडचिड से खतरे में पड़ा और फिर समाप्त हो गया! किन्तु ये सब अतीत था रमेश काफी आगे निकल चुका था अनीता की शादी हो चुकी थी और वो विदेश में थी ऐसी खबर उसे एकबार आकाश से प्राप्त हुयी थी, तब वो सोचता के अच्छा हुआ जो अनीता और उसका साथ छुट गया वरना अनीता आज भी दुःख भरे माहौल में रहती और इन दिनों रमेश की बदहाली में उसे भी कष्ट ही झेलने पड़ते, इतना सोचकर रमेश का मन शांत हो जाता! इसी तरह सोचता हुआ रमेश आगे बढ़ता गया और कुछ संध्या ढलने के पहले पहल घर पहुँच गया!!
आज की शाम कुछ अजीब थी जैसे रमेश के ह्रदय में पुरानी यादों के गुलदस्ते फिर खुल रहे थे..वो छत में चला गया इस शहर में बीते अपने स्कूल और फिर कॉलेज के दिनों की याद करने लगा…जीवन की अनंत स्मृतियों में जब कोई व्यक्ति खोने लगता है तो तरह तरह की कल्पनाओं से भर जाता और फिर उन कल्पनाओं में अपनी ख़ुशी की तलाश करने लगता है जैसे अनंत समंदर में कहीं फंसे जहाज को किनारा सा दिख गया हो…वस्तुतः रमेश की स्थिति ऐसी ही है!! आज फिर उसे बादलों के बीच छिपते सूरज को देखकर अपनी आँखों के आगे बीतते वर्षों की चिंता सी उभर आती है किन्तु क्षण भर के लिए फिर जब वो सहजता से सोचता है तो उसे समझ आता है कि उसने जीवन अबतक व्यर्थ नहीं गवाया है बल्कि अनुभव ही हासिल किया है… कभी अनीता की याद करता है उन बादलों की रंगीनियों को देखकर, कभी सूरज के प्रकाश को देख आकाश के साथ बिताए समय की याद करता है और फिर बड़े पहाड़ों और छांवदार पेड़ों की तरफ देख अपनी मम्मी और पापा के बारे में सोचता है कि कैसे सरकारी स्कूल का हेडमास्टर रहते हुए पिताजी ने उसकी हर जरुरत को पूरा किया…कैसे माँ सब काम छोड़कर उसके लिए सब करती है…घर में एक छोटी बहन भी है इस वर्ष वो भी ग्रेजुएट हो जाएगी तब फिर उसके क्या ख्वाब हैं और उसे लेकर मम्मी पापा के क्या सपने हैं…आगे पढ़ाना चाहते हैं या शादी कर देंगे?? ऐसे अनंत प्रश्न दिमाग में घूम रहे हैं…वो छत में पेराफिट की दीवार से टिककर खड़ा है और उस रोशनी की तरफ देखता डूबा हुआ है…उसके घर के पीछे की ओर बड़े बड़े खेत हैं जहाँ कभी हल चलाते किसान, कभी ट्रेक्टर और कभी गाए, बैल, बकरी सहजता से आँखों के आगे से दिखते हैं…पर उसके मन में इस समय वो दृश्य नहीं बल्कि अपने भविष्य की गहरी सोच और चिंता का दृश्य है…जैसे जैसे अँधेरा हो रहा है, पंछी घर लौट रहे हैं, किसानों ने अपने सामान बाँध लिए हैं और बैलों को लकड़ियों से हकालते अपने घरों की तरफ बढ़ रहे हैं…कुछ देर उन्हें देखता हुआ रमेश बस स्थिर खड़ा है, एकदम चुपचाप अभी भी उसके मन में यही प्रश्न है कि ‘उम्र बढ़ रही है, अब पिताजी से ज्यादा काम नहीं होते घर में वो इकलौता बेटा है उसके जाने के बाद घर के कामों का क्या होगा क्या गुडिया सब संभाल लेगी या घर की स्थिति ख़राब हो जाएगी..??’ ऐसे असंख्य प्रश्न आँखों के आगे घूमते से दिखते हैं और इनके उत्तर स्वयं रमेश के पास नहीं हैं…!! तभी रमेश का मोबाइल फोन बजा “हैलो…हाँ आकाश बोल”!! रमेश ने कहा.. “घर आया था?” आकाश ने उधर से कहा, ‘हाँ आया तो था तू तो मिला ही नहीं कहाँ व्यस्त है भाई?’,रमेश ने प्रश्न किया! ‘अरे नयी फैक्ट्री का सारा काम मुझे ही देखना पड़ रहा है, अब तक कोई नया मैनेजर नहीं मिला ना…’ आकाश ने बताया! ‘नया मैनेजर ?’ रमेश के चेहरे पर थोडा प्रश्नवाचक भाव सा आ गया… ‘हाँ भाई नया मैनेजर चाहिए नयी फैक्ट्री के लिए ,कोई काम ठीक से ना हो रहा है’ आकाश ने बताया! ‘अच्छा…’ रमेश ने बुझे से स्वर में कहा! आकाश ने इस बार कहा “यार ऐसा कर मेरे साथ आजा और थोडा काम देख ले, दो फैक्टरियों पर तो बाबूजी रहते ही हैं और दो में मैं ही देखता हूँ… तीनो का काम अच्छा चल रहा है मैनेजर भी अच्छे हैं…पिछली दफे काफी फायदा भी रहा…मेरे साथ आजा बिजनेस में, ‘ये सरकारी के चक्कर छोड़ यहाँ बहुत कमाई है भाई…”आकाश ने समझाते हुए कहा! एक पल के लिए जैसे रमेश के चेहरे पर मुस्कान थी लेकिन दुसरे ही क्षण उसका चेहरा और भाव दोनों बदले और उसने कहा ’नहीं आकाश, ये बिजनेस-विजनेस अपने बस का रोग नहीं….ना तो पापा मानेंगे ना माँ…” और वो कुछ गंभीर हो गया ‘मैं दिल्ली जा रहा हूँ परीक्षा की तैयारी अब वही से करूँगा” रमेश ने अपनी बात रखी….!! ‘देख यार मैं तुझे अब क्या समझाऊ….चल तूने जो सोचा है वही सही होगा..” गुडलक भाई ….” आकाश ने उत्तर में कहा! “चल ठीक है ट्रेन कब है और कितने बजे है बता देना आ जाऊंगा तुझे छोड़ने…”आकाश थोडा जोरकर बोला…” ‘हम्म…ठीक है’…३१ तारीख को शाम पांच बजे की ट्रेन है” रमेश ने बताया…”चलो ठीक है फिर मिलता हूँ ३१ को भाई,,”आकाश ने कहा…और रमेश ने कहा “ओके..ठीक है मिलते हैं” और फ़ोन रख दिया….अँधेरा हो चुका था रमेश छत से उतरा और अपने कमरे में चल दिया!!

जारी रहेगा…

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

5 thoughts on “उपन्यास: उम्र (दूसरी कड़ी)

  • सुधीर मलिक

    अति सुन्दर… रोचक

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सौरव भाई , कहानी दिलचस्प होती जा रही है , एक दोस्त अमीर और दूसरा गरीब . गरीब के दिल में जो परेशानी है , न तो वोह बता सकता है , ना कुछ कर सकता है . लेकिन अपनी धुन में जदोजैहद करता जा रहा है . किस्मत को किया मंजूर यह कोई नहीं जानता .

  • विजय कुमार सिंघल

    उपन्यास में रोचकता बढ़ती जा रही है। बधाई। पैराग्राफों को थोड़ा छोटा करो।

  • प्रवीण मलिक

    बढ़िया कहानी आदरणीय … सच्चाई के बहुत ही करीब … अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा … सादर

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