उपन्यास अंश

उपन्यास : उम्र (तीसरी कड़ी)

शाम के वक़्त रमेश को ज्यादा काम नहीं होता था, मुश्किल से कुछ देर पढ़ पाता और माँ खाने के लिए बुला लेती, आज खाने के वक़्त जब वो और गुडिया साथ बैठे खाना खा रहे थे तो रमेश ने अचानक कहा ‘मम्मी मैं दिल्ली जाने से पहले एक बार अनिल मामाजी से मिलना चाहता हूँ, क्या गाँव जाने से पहले उन्हें मिल आऊँ? माँ तो जैसे इसी बात के इन्तजार में थी, रमेश ने गुडिया से कहा ‘तू भी चल मेरे साथ गाँव’.. गुडिया ने कहा ‘भैया कॉलेज शुरू हैं इन दिनों हमे लगातार लेक्चर में पढ़ा रहे हैं, मैं जरुर जाती पर फिर पूरी पढाई छूट जाएगी!!” ‘ओह अच्छा ठीक है बाबा तू तेरी पढाई कर मैं ही मिल आता हूँ मामा जी और मामी से..’ रमेश ने खाते हुए कहा!! गुडिया बस मुस्करा दी!
खाना खाकर रमेश कुछ देर टीवी देखने बैठ गया और गुडिया अपने कमरे में जाकर पढाई करने लगी…कुछ देर बाद गुडिया का फ़ोन बजा और वो बाहर बगीचे में जाकर बात करने लगी खिड़की से रमेश ये सब देख रहा था, गुडिया हँसते हुए किसी से बतिया रही थी, रमेश ने ध्यान नहीं दिया और टीवी देखने में मगन हो गया…चैनल पलटता हुआ वो एक न्यूज़ पर आकर रुका और न्यूज़ देखने लगा…तभी दरवाजे से दौड़ी दौड़ी गुडिया आई और सीधे अपने कमरे में घुस गयी, ये कोई नयी बात नहीं थी अक्सर इतने बजे शायद अपनी किसी सहेली से बात करके आती और खुश होकर इसी तरह दौड़ी दौड़ी अपने कमरे में दाखिल हो जाती…आज के दौर की ये कटु सच्चाई ही है कि जैसे जैसे हम गैजेट्स का उपयोग करना सीख गए हैं तब से शायद हम आपस में बैठकर बात करने से बचते हैं, खेर, जो भी था गुडिया खुश होकर इसी तरह कमरे में चली जाती थी, रमेश टीवी देखता रहा! अन्दर से पिताजी खाना खाकर बाहर आये और थोड़ी गरजती हुयी आवाज में रमेश से बोले ‘अरे रमेश सुना है कल गाँव जा रहे हो मामाजी से मिलने,,,” रमेश ने टीवी से नजरें हटायीं और पिताजी की तरफ मुड़कर कहा ‘हाँ पापा सोचा दिल्ली जाने से पहले उनसे भी मिल ही आऊँ” ‘अच्छा सोचा है, जाते वक़्त मेरा भी एक छोटा सा काम कर ही देना” पिताजी ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘मेरे घुटने में दर्द है, जाते समय अनुपम साहब की क्लिनिक पड़ेगी उनसे दवाई लिखवा लाना, पिछली बार जो उन्होंने दवाई लिखी थी वो तो सारी ख़त्म हो गयी, इसबार उनकी लिखी चिट्ठी भी मैंने खो दी,,’ हलकी सी मुसकुरात के साथ पिताजी ने बताया जैसे उन्हें इसका खेद था, ‘हाँ हाँ पापा जरुर ले आऊंगा, अंकल तो मुझे भी अच्छी तरह पहचानते हैं, मैं ले आऊंगा’ रमेश ने जैसे भरोसा दिलाते हुए कहा! फिर पिताजी अपने कमरे में चले गए और मम्मी किचेन का काम निपटाकर एक गिलास में धुध लेकर हॉल में आ गयी,’रमेश ले दूध पी ले,” वो रमेश को दूध डटी हुयी बोलीं! रमेश को दूध रात के वक़्त बिलकुल पसंद नहीं था और पिछले १० साल से लगातार वो इसबात का जबरदस्त विरोध करता था कि ‘रात में दूध मत लाया करो…’ आज भी रमेश ने पुराना जवाब ही दिया.”मैं दूध नहीं पियूँगा माँ..अब कोई बच्चा थोड़े हूँ ३० साल का मर्द हूँ,’ रमेश थोडा खिसियाते और नाटकीय होते हुए बोला.! इस बात पर माँ थोड़ी सी गुस्सा गयी,लेकिन फिर शांत होकर दूध पिताजी के कमरे में रख आई, पिताजी एक पुस्तक अपनी टेबल पर बैठकर पढ़ रहे थे, उन्हें आध्यात्मिक पुस्तकों और धार्मिक ग्रंथो का बहुत शौक था, बदलते दौर में उनके पास आज भी कई बहुत सी बेहतरीन पुस्तकें हुआ करती थीं, गीताप्रेस गोरखपुर की बहुत सी पुस्तकें उन्होंने बहुत संभाल कर रखी हुयी थीं, रमेश जब कभी आध्यात्म की तरफ जाने का मन करता वो अक्सर पिताजी के कमरे में पहुचता और पुस्तकें पढता,!!
इधर रमेश माँ के साथ बैठा ११ बजे तक टीवी ही देखता रहा फिर माँ उठकर सोने चली गयी और रमेश भी उबासी लेता हुआ अपने कमरे में जाने को हुआ तो उसने अपनी बायीं तरफ के कमरे में देखा.,लाइट जल रहा था वो गुडिया का कमरा था, गुडिया लाइट चालू करके ही पुस्तक को चेहरे पर रखे सो गयी थी, रमेश ने जाकर पुस्तक उसके चेहरे से हटाई और उसके सर पर हाथ फेरते हुए थोडा मुस्कराया और लाइट बंद करके कमरे से बाहर आ गया, फिर रमेश अपने कमरे में चला गया और कुछ देर किताबो में देखने लगा, खड़ा खड़ा सोचने लगा कि अब उसे बहुत नींद आ रही है उसकी आँखें बोझिल हो रही हैं और अब कमरे की लाइट उसे चुभ रही है. उसने लाइट बंद की, बाथरूम गया और अपने बिस्तर पर सोने चला गया!!
रात को खुली आँखों से लेटा हुआ रमेश अपने कमरे की दीवार की तरफ देखता रहता, घर के बारे में सोचता, अपने भविष्य के बारे में विचार करता रहता और इस तरह उसे नींद आ जाती और वो एक हद तक सो जाता!
उधर आकाश के आलीशान बंगले की बात कुछ और थी उनके अपने ठाट थे, काव्या डाइनिंग पर खाना लगाती जब आकाश शाम को लौटता तो दोनों साथ में मिलकर खाना खाते, तब तक अंश और बाबूजी सो चुके होते, घर पर सब कुछ ऐसे जमा हुआ था जैसे कोई खुबसूरत शाही महल हो, आकाश रोज सुबह ८ बजे नहा धोकर अपनी कार पर सवार हुआ फैक्ट्री के लिए निकल जाता फिर ९ बजे ड्राईवर कार लेकर आता और बाबूजी दूसरी कार में बैठकर अपने काम से दूसरी फैक्ट्री का रुख करते, उनकी उम्र कुछ ज्यादा थी, कुछ ७३ वर्ष के रहे होंगे तब भी पूरी फैक्ट्री का काम बड़ी तल्लीनता से संभालते! माता जी नहीं थी उनका देहावसान हुए कुछ ७ वर्ष हो गए थे, आकाश सबसे लाडला बेटा था,छोटा जो था, उसके दो बड़े भाई एक अहमदाबाद में थे श्री हरीश जी और उनकी पत्नी जया जी और मंझले वाले भाई साहब शिकागो में थे श्री प्रकाश जी और उनकी पत्नी श्रुति जी!! आकाश ने ही घर का सारा कारोबार संभाला था कुछ ७ वर्ष में जब से माताजी गुजरी हैं आकाश के ही जिम्मे सारा काम रहने लगा था, पिताजी अकेले पड़ गए थे तो आकाश को घर में ही साथ में रखकर अपने काम में लगा लिया धीरे धीरे आकाश की उड़ान को कामयाबी का आकाश छूने में देर ना लगी!
हरीश जी कभी कभी अहमदाबाद से आते तो काफी कुछ बाबूजी,अंश,काव्या और आकाश आदि के लिए ले आते, उस दिन जब रमेश घर आया था तब जया भाभी फ़ोन पर काव्या को अपने आने के विषय में ही बता रही थीं!! आकाश को हरीश का आना अच्छा लगता था, एक बड़े भाई का सहारा हो जाया करता था, हरीश भाई साहब अहमदाबाद में इंजिनियर थे, उन्होंने घरेलु कारोबार में कोई रूचि ना दिखाई थी,उनका मन पढाई में ही रमता था, वे रमेश से भी भली प्रकार से परिचित थे! हरीश और जया को एक बेटा भी था आदि और उनकी एक नन्ही सी परी बिटिया भी थी ईशा!! दोनों बच्चों के आने पर दादू पूरा काम छोड़कर कई बार घर पर ही रुक जाते और अंश,आदी और ईशा को खूब खिलाते, उनका मन बच्चों में बहुत रमता था!
रमेश इन सभी से परिचित था, आकाश का लम्बे समय का दोस्त जो था, आकाश की ठाट से रमेश कभी नहीं जला, ना उसके मन में कभी हीन भावना ही आयी, वो बस सभी का साथ पाकर खुश रहता, उसे जीवन में पारिवारिक सहयोग का अर्थ आकाश को देखकर ही चला था, रमेश के संघर्ष पर कभी कभी आकाश दुखी भी होता किन्तु स्वाभिमानी के आगे हमे सदैव झुकना ही पड़ता है, एक सरकारी नौकरी की आस लिए जवान के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाना आकाश को कभी नहीं भाया था!!
दिन के उजले से उजाले में बादलों को चीरती रोशनी रमेश के कमरे की खिड़की से टकराई, और एक सुराख के साथ अन्दर आ गयी, तभी रमेश की नींद टूटी और वो उठा, देखा ९ बज गए हैं, उसने बैठे बैठे ही अंदाज़ा लगाया, मम्मी बाहर पानी भर रही होगी और गुडिया शायद कॉलेज चली गयी होगी, पिताजी बाहर बैठे अखबार पढ़ रहे होंगे और मम्मी बाहर लगे नल से पानी भर भरकर अन्दर ला रही होगी, निश्चित ही उन सबको रमेश के उठने ना उठने से जैसे कोई फर्क ना था उन्हें तो जैसे जो चल रहा था सो चल रहा था की स्थिति में ही सब भाता था, मम्मी ने रमेश के दरवाजे पर दस्तक दी ‘उठ बेटा काफी सुबह हो गयी आज तू लेट हो गया,,,उठा जा,,जल्दी और मुंह हाथ धोकर चाय पी ले,,,,’ मम्मी की इतनी आवाज़ सुनकर रमेश उठा और एक गिलास पानी पीकर बाथरूम की ओर चला गया, कुछ १५ मिनट बाद नाहा धोकर बाहर आया और अपनी टेबल के ऊपर रखे आईने में देखकर कंघी करने लगा, तौलिया लपेटे खड़ा रमेश बहुत देर तक आईने को देखता रहा और अपनी आँखों के नीचे के काले धब्बों को देखकर सोचने लगा,’तीस साल का नौजवान हूँ पर कोई काम का नही, उम्र ऐसे बढ़ रही है के पता ही नहीं चल रहा है, जीवन सच बहुत जल्दी आगे बढ़ रहा है,,,,,,’ इस तरह अनेको विचार करता हूँ रमेश कमरे से बाहर निकला और सोफे पर जाकर बैठ गया, मम्मी ने तेज़ी से एक कप चाय लाकर उसे पकड़ा दी और रमेश दरवाजे से बाहर देखता हुआ चाय की चुस्कियां लेता हुआ आँगन में आती धूप की तरफ देखने लगा…बाहर बैठे पिताजी अखबार पढ़ रहे थे उनकी आँखों में चश्मा था और वे हर खबर को मानो बड़े ध्यान से पढ़ रहे थे!! रमेश उठा और बाबूजी के पीछे जाकर खड़ा हो गया वो पेपर पर झाँकने लगा, बाबूजी पेपर पर “आवश्यकता है” आदि तरह के नौकरी के इश्तिहार पढ़ रहे थे! रमेश ये देखकर थोडा लजा गया, उसे स्वयं पर शर्म सी महसूस हुयी और वो यकायक पीछे से हटा और धूप की तरफ देखता हुआ सुन्न सा खड़ा हो गया!!

जारी रहेगा…

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “उपन्यास : उम्र (तीसरी कड़ी)

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कड़ी. आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सौरव जी , बहुत दिलचस्प है , गरीबी से जूझ रहे इंसान को कितनी परेशानिओं का सामना करना पड़ता है , और दुसरी ओर अमीरी की शान , कितनी अजीब है यह दुनीआं . ज़िन्दगी में मैंने गरीब अमीर होते देखे हैं और अमीर गरीब होते भी देखे हैं . पंजाबी में कहते हैं , मुलक माही दा वस्से कोई रोवे ते कोई हस्से .

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