उपन्यास अंश

उपन्यास : उम्र (चौथी कड़ी)

रमेश को पापा का रोज इस तरह अखबारों में उसके लिए इश्तिहार देखना शायद बिलकुल स्वीकार नहीं था!! जीवन की अनेकों सच्चाइयों में से एक होता है एक युवा का स्वाभिमान, उसका अपना मन. स्वयं से कुछ पाने की ललक और उसके जीवन के कुछ सपने जिन्हें संजोने के लिए वो जी जान एक कर देता है, रमेश उन्ही युवकों में से था जो कॉलेज के दिनों से ही संभल गए थे, जब प्रदीप और उसके साथी कॉलेज में अव्वल नंबर के मस्तीखोर हुआ करते थे तब रमेश ने कभी उनका साथ नहीं दिया था, प्रदीप एक मस्तमौला इंसान था लेकिन उसमे कुछ ऐब घुस गए थे, जवानी के ऐब, आधुनिकता की चकाचौंध में सिकुड़ती नैतिकता को मिटा डालने वाले ऐब, इन ऐबों ने ही रमेश को प्रदीप से अलग कर दिया था!!
रमेश उस धूप को देखता हुआ याद करता कि कैसे कॉलेज के आखिरी दिनों में कभी आकाश तो कभी अनीता तो कभी काव्या कोई ना कोई नौकरी का विज्ञापन उसके सामने लाकर पटक देते थे, लेकिन उस समय उसका मन नौकरी नहीं बल्कि ‘सरकारी नौकरी’ का बन गया था, धूप की जमीन पर गिरती किरणों और अपने घर के गेट के बड़े नजदीक वाली सड़क पर पड़ती रोशनी ने यकायक जैसे रमेश को जगाया और माँ ने आवाज लगायी ‘अरे…ऐ…रमेश बेटा आज ही मामा के पास गाँव जायेगा क्या?’ रमेश ने सड़क से नजरें हटायीं और पिताजी की तरफ हल्की नजर फेरता हुआ माँ के पास ही आ गया, ‘मैंने पूछा आज ही अनिल मामा से मिलने जा रहा है क्या?’ ‘हाँ मम्मी आज ही चला जाता हूँ, कल लौट आऊंगा, फिर रास्ते में अनुपम डॉक्टर साहब के पास से भी पापा की दवाई लिखवानी है,’ रमेश ने माँ से कहा…’ माँ कुछ चावलों की थाली में से कंकर निकालकर बाहर फेंक रही थी, तभी सर उठाकर बोली, ’हाँ ठीक है खाना बना देती हूँ खाकर ही निकलना आराम से, ११ बजे की बस रहती है, २ ३ घंटे में पहुँच जाएगा,’ रमेश ने हूँ कहते हुए सर हिलाया और सामान बाँधने अपने कमरे की तरफ आ गया!!
रमेश के पास एक पुराना बैग था, आकाश ने जो उसे कभी उपहार में दिया था, कुछ ५ या ६ साल पहले उसकी सालगिरह पर, रमेश जहाँ भी जाता उसे साथ ले जाता था, तभी रमेश का फोम घनघनाया ,’हैल्लो,…हाँ आकाश..’ रमेश ने फोन उठकर कहा, आकाश ने उधर से कहा, ‘अरे रमेश कहाँ है भाई, आज हरीश भैया और जया भाभी अपने दोनों बच्चों के साथ घर आ रहे हैं, काफी दिन हुए हरीश भैया के साथ एक साथ बैठे हुए, आज घर आजा…’ आकाश ने पूरी बात बतायी. ‘अरेयार, आकाश आज मैं तो गाँव जा रहा हूँ मामाजी से मिलने आज तो नहीं आ पाउँगा,’रमेश कुछ दुखी होकर बोला, ‘अच्छा कोई बात नहीं तू मिल आ अनिल मामाजी से ,हरीश भैया तो काफी दिन रुकेंगे,’ आकाश ने हँसते हुए रमेश को बताया, ‘हाँ चलो ये अच्छा है फिर तो मैं जरुर उनसे मिल लूँगा,’रमेश कुछ हँसता सा बोला..’ ‘चल तू कब निकल रहा है फिर गाँव?” आकाश ने पूछा ,’बस कुछ ही देर में, रमेश ने मुस्कराकर कहा, ‘ओह…चल ठीक है तैयारी कर गाँव जाने की अनिल मामाजी को मेरा भी प्रणाम कहना…’आकाश ने कहा,’हाँ जरुर भाई…चल अब फोन रखता हूँ, रमेश ने कहा, और दोनों ने फोन काट दिया,! फोन रखते ही रमेश को बीते दिनों का एक किस्सा याद आ गया जब एक बार वो गाँव जा रहा था, तब उसके साथ जाने कोई तैयार ना था, तब आकाश और वो बस में बैठकर बड़े मजे से मस्ती करते हुए गए थे, तब ही आकाश पहली बार अनिल मामा और मामी जी से मिला था!! जीवन कितने रंग बदलता है ना ,कभी हम सोचते हैं कि हम आज भी वही खड़े हैं और हमारा साथी हमसे कितना आगे निकल गया, एक पल के लिए अपने जीवन में एक ठहराव को महसूस करते हैं और पाते हैं कि शायद वक़्त आगे निकल गया है और हम बस खड़े हैं जहाँ हम खड़े थे!!
तभी माँ ने रमेश को आवाज लगायी,’आजा बेटा गरम गरम रोटियां खा ले,’ रमेश किचेन में गया और वही नीचे बैठकर भोजन की थाली को अपने सामने पाकर कुछ खुश होकर खाना खाने लगा, भोजन समाप्त कर जब वो उठा तो माँ ने एक डिब्बा भी उसके सफ़र के लिए बाँध दिया था, ‘अरे मम्मी इसकी क्या जरूरत है, रास्ते में भूख नहीं लगती’, रमेश थोडा चिडकर बोला, ‘हूँ,,रखले नहीं तो तेरे मामा को खिला देना मेरे हाथ की रोटियां उसे बहुत पसंद हैं,’माँ थोड़ी मुस्कराती हुयी बोली. ;अच्छा बाबा ठीक है लाओ दो,’रमेश ने भी हंसकर डिब्बा लिया और अपने बैग में भर लिया, फिर पिताजी जो नाहा धोकर हॉल में आये सोफे पर बैठे थे उन्हें बताकर घर से निकल गया, कुछ ही दूरी पर चौक था, इसीलिए रमेश अक्सर पैदल ही निकल जाता था, पिताजी के पास एक पुराना स्कूटर था जिसका उपयोग रमेश ने बहुत कम मौकों पर किया था, एक बार काफी पहले कॉलेज गया था, तब दोस्तों ने उसका बड़ा मजाक उड़ाया था, कुछों ने उसका नाम ही उड़नतस्तरी रख दिया, जिससे खीझकर रमेश ने स्कूटर ले जाना ही बंद कर दिया था!! रमेश चौक में खड़ा था, पीछे से रमण काका ने आवाज लगायी ‘अरे ऐ रमेश बिटुआ,’ रमण काका एक मोटे से तगड़े से इंसान थे उनका अपना पान का ठेला था थे तो ठेठ बनारस के पर जब पान खाकर और अपने सर पर बालों के बीच निकल आये चाँद पर हाथ फेरते तो लगते थे एकदम बंगाली, ‘बिटुआ कहाँ जाई रहे हो,’ काका ने पान दबाकर ही पूछा,; अरे बस काका मामाजी से मिलने गाँव जा रहा हूँ,’ रमेश ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया!! ‘अच्छा.. आई जाओ बस का तो काफी देर है भैया पान ही चबाये लेयो दोई चार’ काका ने अपने अंदाज़ में कहा! ‘रमेश ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, अरे मैं पान नहीं खाता काका’! रमण काका थोड़े हँसे और बोले,’ अरे इतना उम्र हो गया है तुम्हारा और अब तक पान का स्वाद ना चखा तो का स्वाद लिया भैये जिन्दगी का?’ हा हा हा …’इतना कहकर रमण काका हंस दिए,! ये हंसी रमेश को थोड़ी सी चुभी पर वो बस शांत खड़ा और मुड़कर काका को देखते हुए मुस्करा दिया! व्यंग्य हमारा पीछा कभी नहीं छोड़ते हम समाज के किसी भी परिचित या अपरिचित कोने में खड़े हो जाएँ पर व्यंग्य शायद एक संघर्षशील व्यक्ति के पीछे मानो पड़े ही रहते हैं!!
बस आ गयी रमेश बस में चढ़ा और पीछे वाली सीट पर जाकर बैठ गया, रमेश खिड़की के पास अक्सर बैठना पसंद करता था, वो जब भी गाँव जाता तो खिड़की के पास ही बैठता था, इसमें वो बस के गरम माहौल से थोडा दूर रहता और बाहर के खुबसूरत मौसम के मजे लेता, उसने अपने ईअरफोन निकाले और मोबाइल पर लगाकर गाने सुनने लगा, उसे अक्सर पुराने गाने ही पसंद आते और खासकर तबके जब वो कॉलेज में था! इस तरह गाने सुनते सुनते बस की सीट पर ही रमेश लटकने लगा, उसे एक झपकी सी आई बस जब सड़क पर गड्ढों से उचकती तो उसकी झपकी टूटती, पर फिर कुछ ही देर में उसे फिर नींद लग जाती इस तरह खिड़की की ठंडी ठंडी हवा में और गानों के साथ उसका लगभग एक घंटे का सफ़र पूरा हो गया, तभी टिकट काटने कंडक्टर उसके करीब आया और जोर से चिल्लाया ‘भाई साहब टिकेट…..’ अचानक रमेश की नींद टूटी और वो जैसे एकदम होश में आ गया और बोला ‘हाँ भैया…एक सूराजगढ़ी तक, ’रमेश बोला, ‘१३० रुपया भैया’ कंडक्टर बोला, रमेश के चेहरे पर प्रश्न उभर आया वो चौंकता हुआ बोला ‘१३० रूपए??’ कंडक्टर बोला ‘हाँ भैया जल्दी दो…..’ रमेश ने कहा ,’लेकिन पिछली बार तो १२० रूपए थी, अचानक ये १० रुपए की बढौतरी क्यों?’ कंडक्टर थोड़ी तेज आवाज में बोला,’ अरे साहब आप भी क्यों बहस करते हैं, आप तो जानते हो पेट्रोल डीज़ल के दाम आसमान छू रहे हैं, ये बस का किराया कोई हमारे पेट में थोड़े जाता है साहब…’ कंडक्टर की बात और उसके हाव भाव देखकर रमेश ने चुप रहना ही ठीक समझा और हम्म.. बोलते हुए जेब से १३० रूपए निकालकर उसे पकड़ा दिए. कंडक्टर ने भी एक टिकट काटकर उसे दिया और चलता बना!!
रमेश बस में बैठा हुआ, गाने सुनते सुनते ऊब चूका था, उसने महसूस किया कि उसे बस का सफ़र भा नहीं रहा है, कुछ देर तक वो अपनी सीट पर ही इधर उधर सरकता हुआ बैठा रहा फिर उसे कानो से ईअरफोन निकाल दिए और चुपचाप बैठा बाहर देखता रहा उसकी बाजू की सीट कुछ देर पहले ही खाली हुयी थी, थोड़ी देर पहले तक वहां कोई मजदूर सरीखा आदमी बैठा था, कुछ दूरी पर एक क़स्बा था, जहाँ बस अक्सर रूकती थी, बस वहां पहुंचकर रुकी और एक वृद्ध सज्जन व्यक्ति रमेश के बाजू में आकर बैठ गए और रमेश की उनसे बातें शुरू हुयी, बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनके बेटे ने भी बड़े संघर्ष के बाद बैंक की नौकरी पायी थी, अब बहु के साथ शहर में रहता है और वो गाँव में रहते हैं, वे बेटे के घर से लौट रहे थे! रमेश को ये जानकार थोडा दुःख हुआ पर फिर उन वृद्धपुरुष ने रमेश से कहा की वे अपने जीवन से खुश हैं और उन्हें बेटे की ख़ुशी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए, गाँव में उनके पास सब कुछ है बस कमी है तो बेटे की जो वो शहर जाकर उसे देख आते हैं तो पूरी हो जाती है!! रमेश मन में विचार करने लगा कि नौकरी मिलने के बाद भी कितनी व्यस्तताएं हमे अपनों से दूर कर देती हैं, जीवन एक ही ठौर पर रुके रहने से नही कटता, एक लम्बे संघर्ष के बाद भी कोई छाँव मिलती है तो उसका भी क़र्ज़ कुछ ना कुछ खोकर चुकाना ही पड़ता है, इतना सोचते हुए रमेश उस बूढ़े के चेहरे की तरफ देखकर थोडा गंभीर हुआ और फिर खिड़की से बाहर देखने लगा, हरे हरीले जंगलों की बीच में बस का गुजरना उसे हमेशा अच्छा लगता था, इन जंगलों के बीच सिर्फ एक बस की आवाज़ ही आती थी और कभी कभी सड़क के किनारे बैठे बंदरों से उसकी नजरें जुड़ जाती, जंगल गुजरे, कई पेड़ पहाड़ चट्टानें गुजरीं, और बस ३ घंटे बाद अपने स्थान में आ यथावत आ पहुंची, गाँव में कोई स्टैंड नहीं होता बस जहाँ खड़ी हो जाए वही जगह बस स्टैंड बन जाती है, उबड़ खाबड़ सडकों से गुजरकर आयी बस से उतरने के बाद सीधे बिस्तर पर चित्त लेट जाने का मन करता है, किन्तु अपने मन को बांधकर रमेश बस से उतरा और एक कच्चे रास्ते से आगे की ओर चल दिया, उसके पीछे बस से उतरे कुछ और भी लोग थे जो लगातार उसके पीछे चल रहे थे, खेतों के बीच से गुजरते हुए एक बस्ती आती थी जहाँ अनिल मामाजी का घर था, उस बस्ती में घुसते ही रमेश ने चैन की सांस ली!!
गाँव गाँव होता है साहब वहां की आबो हवा, ताजगी और मंद मंद बहती पवन हमेशा के लिए हमे जैसे स्वर्ग सी अनुभूति करवाती है, अनिल मामा के घर का आँगन बड़ा था कुछ गोबर से लिपा हुआ था, और रमेश के स्वागत में शायद मामाजी जिन्हें रमेश ने बस से ही फोन करके अपने आने का सन्देश दे दिया था द्वार पर ही खड़े थे, अच्छा घर था, बस्ती के दो चार पक्के घरों में मामाजी का भी एक था, रमेश को आते देख अनिल जी ने जोरकर मुस्कराते हुए कहा,’आओ आओ भाई रमेश आ जाओ…!’ और वे आँगन में कुर्सी लाकर रखने लगे, रमेश ने कंधे से बैग उतारा और मामाजी के साथ आँगन में रखी कुर्सी बस लम्बी सांस लेते हुए बैठ गया! मामाजी की तरफ देख वो थोडा मुस्कराया और तभी मामाजी बोले ‘आने में कोई दिक्कत तो नहीं हुयी ना रमेश?’‘नहीं मामाजी कोई दिक्कत नहीं हुयी.’रमेश ने उत्तर दिया…, तभी मामीजी निकल कर बाहर आयीं उनके हाथो में ट्रे थी जिसमे स्टील के गिलास में पानी था और रमेश की तरफ बढ़कर पानी का गिलास थमाकर मुस्कराती हुयी बोलीं ;’अच्छे समय पर पहुँच गये भैया, वरना पिछली बार जैसे सड़क ख़राब होती तो शायद शाम ढलते तक ही अँधेरे में आना पड़ता’ इस बात पर रमेश मुस्करा दिया, तभी आँगन की तरफ से शंकर आया, मामाजी का बड़ा बेटा, उसकी उम्र कुछ २१ २२ वर्ष रही होगी वो खेत से चला आ रहा था, उसके खाकी रंग के पेंट पर कुछ गीली मिटटी लगी थी और उसने एक सफ़ेद मटमैली सी टी शर्ट पहन रखी थी, रमेश को देखकर वो ख़ुशी से अरे रमेश भैया,,,,, बोलता हुआ पाँव पड़ने लपका पर रमेश ने उसके कंधो पर हाथ रख उसे रोक लिया और खड़े होकर उसे गले से लगा लिया, शंकर काफी खुश हुआ और उसने पूछा’ कैसे हैं रमेश भैया?’ ‘बिलकुल फर्स्ट क्लास हूँ शंकर, तुम कैसे हो?’ रमेश ने पुछा ‘मैं भी बिलकुल अच्छा हूँ..’ शंकर ने उत्तर दिया, ‘अभी क्या खेत से चले आ रहे हो?’ रमेश ने फिर पुछा ‘हाँ आप हालत तो देख ही रहे हैं’ शंकर ने इतना कहा और सब हंस पड़े, उसके बाद शंकर अन्दर चला गया और बाथरूम जाकर नहाने ल्धोने की तयारी करने लगा तभी मामी जी आँगन में ही चाय बनाकर ले आयीं,’ अरे मामी अभी तो आया हूँ एक दिन रुकुंगा भी इतने जल्दी चाय पिलाकर विदा करने का इरादा है क्या?’ रमेश ने मजाकिया लहजे में कहा, इसपर मामाजी और मामी दोनों हंस पड़े! चाय पीते हुए मामी जी आँगन की सीढ़ियों में ही बैठ गयी और मामा जी ने एक चुस्की लेते हुए रमेश से बात शुरू की ‘तो रमेश बाबू आपके दिल्ली जाने की खबर सुनी है..’ ‘हाँ मामाजी जाने तो वाला हूँ इसी महीने की आखिरी तारीख का रिजर्वेशन करवाया है’ रमेश ने चाय पीते हुए ही उत्तर दिया, ‘चलो अच्छा है बेटा इस परीक्षा में पूरा जोर लगा ही लो’ मामाजी ने कुछ संजीदा होते हुए कहा, मामी जी ने भी हाँ में हाँ मिलते हुए सिर्फ गंभीरता से ‘हाँ’ कहा!! रमेश और मामाजी मामी के बीच इसी तरह घर के हाल चाल और पिता जी की तबियत वगैरह के बारे में बात होती रही., चाय ख़त्म कर रमेश ने गुडिया के फोन पर फोन लगाया और मम्मी पापा को अपने पहुचने की खबर दी, इस तरह आज की शाम ढली!!

जारी रहेगा….

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

One thought on “उपन्यास : उम्र (चौथी कड़ी)

  • विजय कुमार सिंघल

    उपन्यास में उत्सुकता और रोचकता बढती जा रही है. बधाई !

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