कहानी

कहानी : किसे अपना कहूँ?

गीता पुरोहित दीदी की कहानी

इन दिनों सर्दियों की छुट्टियों मे घर मे बहुत चहल पहल थी। खाने मे बच्चों का फरमाइशी प्रोग्राम चालू था |सीता भी ये सब करके खुश थी पर कही मन थोडा उदास था |बहुत सोचने पर भी समझ नहीं आया। इसी सीजन मे पंतग भी उड़ाते है तो बच्चे छत पर चले गये। सीता भी ऊपर जा कर बच्चो को पंतग उड़ाते देखने लगी। उड़ती पंतग देखते-देखते उसका मन भी सालो पीछें उड़ चला। वह भी बच्चो को देख अपने बचपन मे चली गयी। पुरानी यादो मे खो गयी। सहसा एक बुरी याद ने दिल झकझोर दिया।

सर्दियों मे वह भाई के साथ छत पर खड़ी थी। उनको पंतग उड़ाते देख रही थी | सीता के दो बड़े और दो छोटे भाई थे। बहन वह अकेली ही थी तो उसका ज्यादा टाइम भाइयो के साथ ही बीतता था। तभी पड़ोस के दूर के काका ने भाइयो को अपनी छत पर बुला लिया। वह भी उनके साथ हो ली , आदत जो थी …! काका घर पर अकेले थे क्यूंकि काकी पीहर गयी हुयी थी। सब पंतग उड़ा रहे थे। देखते-देखते कब साँझ हो गयी पता ही ना चला। भाई थक कर घर चले गये लेकिन सीता को आवाज ही नहीं दी | काका ने ही आवाज देकर नीचे बुलाया पता चला की वो अकेली रह गयी।

तभी काका ने कहा ”कोई बात नहीं मे छोड़ दूंगा ,पहले थोड़ी देर मेरे पास बैठो।”

“नहीं मैं चलती हूँ …!”पर काका ने उसका हाथ पकड़ कर खटिया पर बिठा दिया और कभी उसका सर कभी गा्ल सहलाने लगे सीता समझ नहीं पाई की ये क्या हो रहा है। प्यार तो माँ भी करती है और बाबूजी भी करते थे कभी ऐसा अजीब ना लगा। वह कुछ समझती, काका ने उसे चूमना चाहा तभी दरवाजे से खट -खट की आवाज सुनकर वो चौंक गये। दरवाज़ा खोला तो सामने सीता की माँ थी। काका खिसियाते हुए बोले” अरे भौजी तुम !ओह हाँ , सीता को लेने आई हो मैं ला ही रहा था।”

माँ ने काका को घूरकर देखा और बिना कुछ कहे उसका हाथ पकड़ा और घर चली गयी। घर मे सब इंतजार कर रहे थे। माँ और बाबूजी मे क्या बात हुई इशारो मे की बाबूजी के चेहरे का रंग बदल गया,और सीता को लगे धमकाने कि आज के बाद इन लोगो के साथ बाहर नहीं जाओगी घर मे ही रहोगी।

बहुत अरसा बीत गया ना माँ ने जिक्र किया ना उसे याद था पर उसके अवचेतन मन मे आज भी वो घटना कैद थी। आज अख़बार मे भी ऐसी ही रिश्तो को तार तार करती हुई एक घटना की हेड लाइन थी। अचानक बच्चो की चिल्हाहट से तन्द्रा टूटी और वो वर्तमान मे लौटी और उसे अपनी उदासी का कारन पलक झपकते ही समझ आगया कि उदासी इन खबरों के पढने से हुई है।अतीत की वो घटना ज्यो की त्यों उसके मानस पटल पर कौंध गयी तब तो वो नादाँ थी पर आज उसको सब समझ आगया। उस दिन माँ समय पर ना आती….थोड़ी सी चूक

उसके जीवन की धारा ही बदल देती….क्या होता ? उसका भविष्य कलंकित होते – होते बचा। माँ आज दुनिया मे नहीं है पर वो उनके प्रति आज भी नत मस्तक है | फिर सोचने लगी हर वक्त हर किसी की माँ साथ नहीं होती…परिवार वालों के पास बच्चो को छोड़ के जा भी सकते है पर इन काका , मामाओ को भी रिश्तो की गरिमा का खयाल रखना चाहिए। ये लोग अपनी विकृत मानसिकता के कारन ना उम्र देखते है ना ही रिश्ते…..कोई क्या करे जब रक्षक ही भक्षक बन जाये जब जन्मदाता या उनका भाई या फिर खुद भाई जो रक्षक है वही ……सोचती रही सोचती ….ना जाने कब तक सोचती रहती कि बच्चो ने भूख भूख लगी है कह कर उसका पल्लु खीचा तो उसकी तन्द्रा भंग हुई और वो काम मे उलझ गयी। पर सब के लिए एक सवाल कि किसे अपना कहूँ ?

शान्ति पुरोहित

निज आनंद के लिए लिखती हूँ जो भी शब्द गढ़ लेती हूँ कागज पर उतार कर आपके समक्ष रख देती हूँ

One thought on “कहानी : किसे अपना कहूँ?

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी, बहिन जी. आजकल सगे सम्बन्धियों पर भी एक सीमा से अधिक विश्वास करना कठिन है.

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